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सुप्रीम कोर्ट पहुंचा ‘मैरिटल रेप’ का मामला, दिल्ली हाईकोर्ट के खंडित फैसले को दी गई चुनौती

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Marital Rape: दरअसल, केंद्र सरकार ने साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में कहा था कि वैवाहिक बलात्कार यानी मैरिटल रेप को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का आसान साधन बन सकती है।

मैरिटल रेप
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मौरिटल रेप के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। मौरिटल रेप यानी पत्नी से जबरन शारीरिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं, इस पर दिल्ली हाई कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने कुछ दिनों पहले बंटा हुआ फैसला दिया था। जिसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट के विभाजित फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है। जस्टिस राजीव शकधर ने अपने फैसले में मैरिटल रेप को जहां अपराध माना, वहीं जस्टिस सी. हरिशंकर ने इसे अपराध नहीं माना।

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याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत मैरिटल रेप के अपवाद की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह अपवाद उन विवाहित महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिनका उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है। इस अपवाद के अनुसार, यदि पत्नी नाबालिग नहीं है, तो उसके पति का उसके साथ यौन संबंध बनाना या यौन कृत्य करना बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता। 

मैरिटल रेप के मामले पर केंद्र सरकार का रुख

मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार भारत में अपराध नहीं है। अगर कोई पति अपनी पत्नी से उसकी सहमति के बगैर सेक्सुअल रिलेशन बनाता है तो ये मैरिटल रेप कहा जाता है लेकिन इसके लिए कोई सजा का प्रावधान नहीं है। 2017 में मैरिटल रेप को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा था, ‘मैरिटल रेप को अपराध करार दिया जा सकता है और अगर ऐसा होता है तो इससे शादी जैसी पवित्र संस्था अस्थिर हो जाएगी।’ ये तर्क भी दिया गया कि ये पतियों को सताने के लिए आसान हथियार हो सकता है। धारा 375 और 376 के प्रावधानों के अनुसार संबंध बनाने के लिए सहमति देने की उम्र 16 वर्ष है, लेकिन 12 साल से बड़ी उम्र की पत्नी की सहमति या असहमति का रेप से कोई लेनादेना नहीं है।

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