महात्मा गांधी ने क्यों कहा, ‘माय फादर्स डेथ एंड माय डबल शेम’, जानिए

आज महात्मा गांधी की 72 वीं पुण्यतिथि है। महात्मा गांधी को आजादी का संत माना जाता है। आज ही के दिन महात्मा गांधी स्वर्ग सिधार गए थे। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे नाम के एक आतंकवादी ने उनकी हत्या कर दी। हालांकि इससे पहले 20 जनवरी 1948 को भी महात्मा गांधी पर जानलेवा हमले हुए थे। हालांकि लोगों का मानना है कि गांधी जी को उनकी मृत्यु का पुर्वानुमान हो गया था। उन्होंने 20 से 30 जनवरी तक 14 बार अपनी मृत्यु का जिक्र किया था।
मृत्यु के विषय में 21 जनवरी 1948 को गांधी जी कहते हैं , ‘अगर कोई मुझ पर बहुत पास से गोली चलाता है और मैं मुस्कुराते हुए, दिल में राम नाम लेते हुए उन गोलियों का सामना करता हूं तो मैं बधाई का हकदार हूं’।
गांधी जी पर उनके कई फैसलों की वजह से सवाल खड़े किए जाते रहे हैं, उनकी आत्मकथा में लिखी बातों को समाज में गांधी की प्रासंगकिता पर दाग लगाने की कोशिश की जाती है। मगर गांधी की आत्मकथा में जितनी सच्चाई से उन्होंने अपने कमियों को लिखा वो शायद ही कोई और कर पाता।
गांधी जी ने अपनी आत्मकथा द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ में अपने जीवन से जुड़ी कई बातों को साझा किया है। आत्मकथा के एक अध्याय में गांधी जी ने आत्मग्लानि का जिक्र किया है। उन्होंने इस अध्याय का शीर्षक दिया है ‘माय फादर्स डेथ एंड माय डबल शेम’। इस अध्याय को महात्मा गांधी ने ईमानदारी के साथ बताया है कि उनके पिता के देहावसान के समय में वो अपनी पत्नी के साथ शयन कर रहे थे।

पिता की बीमारी
गांधी कहते हैं, “उस समय मैं सोलह वर्ष का था । हम ऊपर देख चुके हैं कि पिताजी भगन्दर की बीमारी के कारण बिलकुल शय्यावश थे। उनकी सेवा में अधिकतर माताजी, घर का एक पुराना नौकर और मैं रहते थे। मेरे जिम्मे ‘नर्स’ का काम था। उनका घाव धोना, उसमें दवा लगाना, मरहम लगाने के समय मरहम लगाना, उन्हें दवा पिलाना और जब घर पर दवा तैयार करनी हो तो तैयार करना, यह मेरा खास काम था।

पिता की सेवा
रात में हमेशा उनके पैर दबाना और इजाजत देने पर अथवा उनके सो जाने पर सोना यह मेरा नियम था। मुझे यह सेवा बहुत प्रिय थी। स्मरण नहीं है कि मैं इसमें किसी भी दिन चूका हूं। ये दिन हाईस्कूल के तो थे ही। इसलिए खाने-पीने के बाद का मेरा समय स्कूल में अथवा पिताजी की सेवा में ही बीतता था। जिस दिन उनकी आज्ञा मिलती और उनकी तबीयत ठीक रहती, उस दिन शाम को टहलने जाता था।

दोहरी शर्म
इसी साल पत्नी गर्भवती हुई। इसमें दोहरी शर्म थी। पहली शर्म तो इस बात की कि विद्याध्ययन का समय होते हुए भी मैं संयम से न रह सका और दूसरी यह कि यद्यपि स्कूल की पढ़ाई को मैं अपना धर्म समझता था, और उससे भी अधिक माता-पिता की भक्ति को धर्म समझता था। फिर भी विषय-वासना मुझ पर सवारी कर गयी थी।

मतलब यह कि यद्यपि रोज रात को मैं पिताजी के पैर तो दबाता था, लेकिन उस समय मेरा मन शयन-गृह की ओर भटकता रहता था, और वो भी ऐसे समय जब स्त्री का संग धर्मशास्त्र, वैद्यक-शास्त्र और व्यवहार-शास्त्र के अनुसार त्याज्य था। जब मुझे सेवा के काम से छुट्टी मिलती, तो मैं खुश होता और पिताजी के पैर छुकर सीधा शयन-गृह में पहुँच जाता।
पिताजी की शस्त्रक्रिया
पिताजी की बीमारी बढ़ती जा रही थी। वैद्यों ने अपने लेप आजमाए, हकीमों ने मरहम-पट्टियाँ आजमायीं, साधारण हज्जाम वगैरा की घरेलू दवायें भी कीं; अंग्रेज डॉक्टर ने भी अपनी अक्ल आजमा कर देखी। अंग्रेज डॉक्टर ने सुझाया कि शस्त्र-क्रिया ही रोग का एकमात्र उपाय है। परिवार के एक मित्र वैद्य बीच में पड़े और उन्होंने पिताजी की उत्तरावस्था में ऐसी शस्त्रक्रिया को नापसन्द किया।
दवाओं की जो बोतलें खरीदी थीं वे व्यर्थ गईं और शस्त्र-क्रिया नहीं हुई। वैद्यराज प्रवीण और प्रसिद्ध थे। मेरा खयाल है कि अगर वे शस्त्र-क्रिया होने देते, तो घाव के भरने में दिक्कत न होती। शस्त्र-क्रिया उस समय के बम्बई के प्रसिद्ध सर्जन के द्वारा होनी थी।
अंतिम समय
अन्तकाल समीप था इसलिए उचित उपाय कैसे हो पाता? पिताजी शस्त्र-क्रिया कराये बिना ही बम्बई से वापस आ गए। वे अधिक जीने की आशा छोड़ चुके थे। कमजोरी बढ़ती गयी और ऐसी स्थिति आ पहुँची कि प्रत्येक क्रिया बिस्तर पर ही करना ज़रूरी हो गया। लेकिन उन्होंने आखिरी घड़ी तक इसका विरोध ही किया और परिश्रम सहने का आग्रह रखा।
वैष्णव धर्म का यह कठोर शासन है। बाह्य शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। पर पाश्चत्य वैद्यक-शास्त्र ने हमें सिखाया है कि मल-मूत्र-विसर्जन की और स्नानादि की सब क्रियायें बिस्तर पर लेटे-लेटे संपूर्ण स्वच्छता के साथ की जा सकती हैं और रोगी को कष्ट उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ती; जब देखो तब उसका बिछौना स्वच्छ ही रहता है। इस तरह साधी गयी स्वच्छता को मैं तो वैष्णव धर्म का ही नाम दूँगा। पर उस समय स्नानादि के लिए बिछौना छोड़ने का पिताजी का आग्रह देखकर मैं आश्चर्यचकित ही होता था और मन में उनकी स्तुति किया करता था।
पिताजी का देहावसान
अवसान की घोर रात्रि समीप आई। उन दिनों मेरे चाचाजी राजकोट में थे। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि पिताजी की बढ़ती हुई बीमारी के समाचार पाकर ही वे आये थे। दोनों भाईयों के बीच अटूट प्रेम था। चाचाजी दिन भर पिताजी के बिस्तर के पास ही बैठे रहते, और हम सबको सोने की इजाजत देकर खुद पिताजी के बिस्तर के पास सोते। किसी को यह खयाल तो था ही नहीं कि यह रात आखिरी सिद्ध होगी।
वैसे डर तो बराबर बना ही रहता था। रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे होगें। मैं पैर दबा रहा था। चाचाजी ने मुझसे कहा, “जा, अब मैं बैठूगाँ।” मैं खुश हुआ और सीधा शयन-गृह में पहुँचा। पत्नी तो बेचारी गहरी नींद में थी। पर मैं सोने कैसे देता? मैंने उसे जगाया। पाँच-सात मिनट ही बीते होंगे, इतने में जिस नौकर की मैं पहले चर्चा कर चुका हूँ, उसने आकर किवाड़ खटखटाया। मुझे धक्का-सा लगा। मैं चौंका। नौकरने कहा, “उठो, बापू बहुत बीमार हैं।” मैं जानता था कि वे बहुत बीमार तो थे ही, इसलिए यहाँ ‘बहुत बीमार’ का विशेष अर्थ समझ गया। एकदम बिस्तर से कूद पड़ा। “कह तो सही, बात क्या हैं?” जवाब मिला, “बापू गुजर गये!”
गांधी जी की आत्मगलानि
अब मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत शर्माया। बहुत दुःखी हुआ। दौड़कर कमरे में पहुँचा। बात मेरी समझ में आयी कि अगर मैं विषयान्ध न होता, तो इस अन्तिम घड़ी में यह वियोग मुझे नसीब न होता और मैं अन्त समय तक पिताजी के पैर दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी के मुँह से ही सुनना पड़ा, “बापू हमें छोड़कर चले गये!” अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी अंतिम सेवा का गौरव पा गये। पिताजी को अपने अवसान का अन्दाज हो चुका था। उन्होंने इशारा करके लिखने का सामान मँगाया और कागज पर लिखा, “तैयारी करो!” इतना लिखकर उन्होंने अपने हाथ पर बँधा तावीज तोड़कर फेंक दिया, सोने की कण्ठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में आत्मा उड़ गयी।
सेवा के समय भी विषय की इच्छा
पिछले अध्याय में मैंने अपनी जिस शर्म का जिक्र किया है, वह यही शर्म है-सेवा के समय भी विषय की इच्छा! इस काले दाग को मैं आज तक मिटा नहीं सका, भूल और मैने हमेशा माना है कि यद्यपि माता-पिता के प्रति मेरी अपार भक्ति थी, उसके लिए मैं सब कुछ छोड़ सकता था, तथापि सेवा के समय भी मेरा मन उस विषय को छोड़ नहीं सकता था। यह सेवा में रही हुई अक्षम्य त्रुटि थी ।
जो बालक जन्मा वह दो या चार दिन जीकर चला गया।
इसी से मैने अपने को एकपत्नी-व्रत का पालन करने वाला मानते हुए भी विषयान्ध माना है। इससे मुक्त होने में मुझे बहुत समय लगा और मुक्त होने से पहले कई धर्म-संकट सहने पड़े। अपनी इस दोहरी शर्म की चर्चा समाप्त करने से पहले मैं यह भी कह दूँ कि पत्नी का जो बालक जन्मा वह दो या चार दिन जीकर चला गया। कोई दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता था? जिन माँ-बापों को अथवा जिन बाल-दम्पती को चेतना हो, वे इस दृष्टान्त से चेते।

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स्रोत: The Story of My Experiments with Truth- MK Gandhi