
फटाफट पढ़ें
- गौतमपुरा में दिवाली पर हिंगोट युद्ध होता है
- दो दल तुर्रा और कलंगी फेंकते हैं हिंगोट
- हिंगोट में बारूद, कोयला और लोहे की कणिकाएं
- यह परंपरा 200 साल पुरानी, मुगल काल से जुड़ी है
- युद्ध भाईचारे का प्रतीक है, गले मिलकर शुरू होता है
Hingot War : मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर से लगभग 55 किलोमीटर दूर गौतमपुरा कस्बे में हर साल दिवाली के दूसरे दिन एक अनोखा हिंगोट युद्ध आयोजित किया जाता है. यह परंपरा कई सैकड़ों साल पुरानी है और इसे देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग जुटते हैं.
हिंगोट युद्ध हर साल दिवाली के अगले दिन, यानी पड़वा के दिन आयोजित किया जाता है. इस दिन लोग दूर-दूर से एकत्रित होकर इस अनोखे आयोजन को देखने आते हैं. इस युद्ध में दो दल होते हैं. एक तुर्रा दल और कलंगी दल. तुर्रा दल गौतमपुरा गांव के योद्धाओं का होता है. जबकि कलंगी दल रूणजी गांव के योद्धाओं का. दोनों टीमें शाम को समय युद्ध मैदान में आमने-सामने खड़ी होती हैं और आग से जलते हिंगोट को एक-दूसरे पर फेंका जाता है. युद्ध शुरु होने से पहले दोनों दल के योद्धा पहले एक-दूसरे से गले मिलते हैं और भगवान देवनारायण से आशीर्वाद लेते हैं. इसके बाद रोशनी कम होते ही हिंगोटों की बरसात शुरू हो जाती है. आसमान में उड़ते और जलते हिंगोट एक ऐसा दृश्य बनाते हैं जो किसी फिल्मी युद्ध से कम नहीं लगता.
बारूद भरे हिंगोट फेंके जाते हैं
दरअसल, हिंगोट एक जंगली फल है जो कि हिंगोरिया नामक पेड़ पर उगता है. इसका खोल नारियल की तरह सख्त होता है. हिंगोट को सुखाने के बाद अंदर का गूदा निकाल दिया जाता है और फिर इसमें बारूद, कोयला, गंधक और लोहे की कणिकाएं भरी जाती हैं. इसके बाद इसे रॉकेट जैसी पतली डंडी बांधी जाता है. यही हथियार युद्ध में इस्तेमाल किया जाता है. योद्धा इसे अपने झोले में लेकर आते हैं. सिर पर पगड़ी, हाथ में लोहे की ढाल पहने होते हैं. बारूद भरे हिंगोट को वे आग लगाकर दुश्मन दल की ओर फेंकते हैं. जैसे ही हिंगोट हवा में फटता है, तो चारों ओर चिंगारियां फैल जाती हैं.
हिंगोट युद्ध की 200 साल पुरानी परंपरा
हिंगोट युद्ध लगभग 200 साल पुरानी परंपरा है. मान्यता है कि मुगल काल में जब सेना गांवों में लूटपाट किया करती थीं, तब स्थानीय मराठा योद्धाओं ने हिंगोटों का इस्तेमाल दुश्मन पर वार करने के लिए किया. इसके बाद यह परंपरा प्रतीकात्मक युद्ध और उत्सव रूप में बदल गई. हिंगोट युद्ध की सबसे खास बात यह है कि ये नफरत नहीं बल्कि भाईचारे का प्रतीक है. युद्ध शुरू होने से पहले ही दोनों टीम एक-दूसरे से गले मिलती हैं और अंत में घायल योद्धाओं के घर पर जाकर उनका हालचाल पूछती हैं. इस परंपरा से यह सीख मिलती है कि असली वीरता किसी को हराने में नहीं, बल्कि साथ निभाने में हैं. जब आसमान में जलते हिंगोट उड़ते हैं, तो गौतमपुरा में एक ही स्वर में जय देवनारायण की गूंज चारों ओर सुनाई देती है.
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