राजनीति

‘एक देश एक चुनाव’ और ‘एक देश एक शिक्षा’ पर मोदी बनाम केजरीवाल

Modi vs Kejriwal : नरेन्द्र मोदी की सरकार ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की ओर कदम बढ़ा रही है जबकि अरविन्द केजरीवाल ने तत्काल प्रतिकार किया है कि बीजेपी गलत प्राथमिकता चुन रही है। देश को आवश्यकता है ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ की, ‘वन नेशन वन हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर’ की। बीजेपी की पहल का खुद एनडीए के भीतर भी विरोध हो रहा है। एनडीए से जुड़ी पांच पार्टियों ने विरोध किया है। तमाम विपक्षी पार्टियों ने भी विरोध किया है। मगर, तार्किक विरोध लेकर सामने आए अरविन्द केजरीवाल।

अरविन्द केजरीवाल के विरोध में समांतर वैकल्पिक सियासत है। इसी गुण के साथ आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था। तब कांग्रेस केंद्र की सत्ता मे थी, आज बीजेपी सत्ता में है। इसके अलावा स्वयं ‘आप’ भी दिल्ली की सत्ता में है। तब भ्रष्टाचार के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति खड़ी की जा रही थी। अब एक ऐसी राजनीति के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति खड़ा करने की जद्दोजहद में हैं अरविन्द केजरीवाल, जो सत्ता पर पकड़ मजबूत करने में लगातार जुटी हुई है।

मोदी सत्ता पर पकड़ मजबूत करना चाहते हैं तो केजरीवाल जनता पर

अरविन्द केजरीवाल की सियासत जनता में पकड़ मजबूत करने की है। जबकि, बीजेपी की सियासत सत्ता पर पकड़ मजबूत रखने की है। ‘एक देश एक चुनाव’ का मकसद चुनाव प्रणाली पर प्रशासन, धन, तंत्र के जरिए लोकतंत्र पर पकड़ मजबूत करने की आकांक्षा है जिसका देश में विरोध है। विपक्ष में विरोध है। और, यहां तक कि सत्ता पक्ष के गठबंधन में भी। मगर, जनता में पकड़ मजबूत करने की सियासत में कहीं कोई विरोध नहीं है।

एक देश एक शिक्षा या फिर एक देश एक स्वास्थ्य ढांचा- का नारा क्रांतिकारी है क्योंकि इससे आम लोगों की जिन्दगी बदल जाएगी। यह देश बदल देगा। देश को दुनिया में ‘अव्वल’ के तौर पर स्थापित कर देगा। अरविन्द केजरीवाल को यह अंतरदृष्टि जनता के बीच रहकर सियासत करने से प्राप्त हुई है। इसके विपरीत नरेंद्र मोदी की सियासत संकेत देती है कि वे जनता से दूर हो चुके हैं। ‘एक देश एक चुनाव’ से पहले भी ‘एक देश एक टैक्स’ देश पर थोपा गया था। नतीजा क्या हुआ? आम जनता टैक्स के बोझ से कराह रही है और आम लोगों के टैक्स के पैसे से अरबपतियों को छूट दी जा रही है। क्या ‘एक देश एक चुनाव’ भी आम लोगों के लिए अलोकतांत्रिक साबित होगा जो चंद लोगों को धनकुबेर होने का ‘लोकतंत्र’ पैदा करेगा?

केजरीवाल दे रहे हैं वैकल्पिक नज़रिया

‘वन नेशन वन एजुकेशन’ और ‘वन नेशन वन हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर’ ही उस समांतर सियासत का विकल्प है जो ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के नाम से की जा रही है। केजरीवाल ने एजुकेशन के क्षेत्र में दिल्ली को देश के बाकी महानगरों और प्रदेशों से बिल्कुल अलग कर दिखाया है। शिक्षा को गुणवत्ता प्रदान की है और शिक्षा पर खर्च में आम लोगों की मदद की है। यही स्थिति हेल्थ केयर को लेकर भी है।

दिल्ली में स्कूली बच्चों को फ्री यूनीफॉर्म, फ्री टेक्स्ट बुक और यहां तक कि फ्री ट्यूशन सरकार ने उपलब्ध कराए हैं। औसतन हर बच्चे पर सालाना 20 हजार रुपये का खर्च बचाया है जो मां-बाप को करना पड़ता। यूपी, एमपी, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में ऐसा करना पड़ रहा है और आम लोगों को मुश्किलें आ रही हैं।

दिल्ली में स्कूलों को ये आजादी नहीं है कि जब चाहे फीस बढ़ा दें। उन्हें सरकार से इजाजत लेनी होगी। मनमानी पर अंकुश है। जबकि, समूचे देश में अभिभावक स्कूल प्रबंधन की मनमानी का सामना कर रहे हैं। स्कूल के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान देना, क्लासरूम की संख्या बढ़ाना, स्मार्ट क्लास, शिक्षकों को विदेश भेजकर ट्रेनिंग, बच्चों को विदेश भेजने जैसी पहल ने शिक्षा के क्षेत्र में दिल्ली को खास भी बनाया है और खास मुकाम तक भी पहुंचाया है। 

दिल्ली में शिक्षा का बजट (जिसमें स्पोर्ट्स, आर्ट्स एंड कल्चर भी शामिल थे) 2012-13 में 5491 करोड़ था। 2024-25 में यह बढ़कर 16,396 करोड़ हो गया है। यानी बीते 11 साल में पांच गुणा शिक्षा का बजट बढ़ा है। 2024-25 के बजट नए स्कूल और क्लासरूम के लिए 150 करोड़ रुपये, क्लासरूम के मेंटनेंस पर 45 करोड़ रुपये, बिजनेस ब्लास्टर योजना के लिए 40 करोड़ रुपए, सीएम सुपर टैलेंटेड कोचिंग स्कीम के लिए 6 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। ये वो क्षेत्र हैं जहां दिल्ली की सरकार ने बच्चों की शिक्षा पर नवाचार किए हैं। यह पहल अन्य प्रदेशों में नहीं दिखाई देती।

दिल्ली की तर्ज पर देश में भी हो सकती है फ्री शिक्षा

ऐसा नहीं है कि देश में शिक्षा पर खर्च नहीं होते। खर्च होते हैं मगर स्टूडेंट को उसका कितना लाभ मिलता है यह बड़ा प्रश्न है। 2022-23 में केंद्र और राज्य सरकारों ने कुल 11 लाख करोड़ रुपये शिक्षा पर खर्च किए थे। 80 प्रतिशत स्कूली शिक्षा पर खर्च हुए थे। प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा पर 7 लाख करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा खर्च हुआ था। लेकिन, यह खर्च छात्रों की दशा नहीं सुधार सकी। अरविन्द केजरीवाल ने ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ की बात करते हुए कहा है कि यह संभव है। केवल 5 लाख करोड़ रुपये का इंतज़ाम करना है। अगर वर्तमान बजट नाकाफी है तो भी यह अतिरिक्त रकम जुटाना बहुत अधिक मुश्किल काम नहीं है।

देश में 26 करोड़ बच्चे स्कूल जा रहे हैं और इनमें से 60 फीसदी सरकारी या अर्ध सरकारी स्कूलों से जुड़े हैं। भारत में हर बच्चे की शिक्षा पर सालाना 55 हजार रुपये सरकार खर्च कर रही है। करीब 4600 रुपये हर बच्चे पर हर महीना खर्च हो रहा है। अगर अरविन्द केजरीवाल की मानें तो 26 करोड़ बच्चों के 60 फीसदी यानी 15.6 करोड़ स्कूली बच्चों पर 5 लाख करोड़ रुपये खर्च कर दिए जाएं यानी 32,051 रुपये खर्च बढ़ा दिए जाएं तो देश में फ्री शिक्षा का मकसद हासिल किया जा सकता है। तब प्रति छात्र सालाना 87,051 रुपये खर्च होंगे। सच ये है कि निजी स्कूलों में अभिभावक इससे ज्यादा खर्च कर रहे हैं। 

राजनीति चुनाव के लिए नहीं चुनाव जनता के लिए हों

दिल्ली में सरकार स्कूली बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर खर्च बढ़ाकर और वांछित परिणाम हासिल कर देश का ध्यान खींचा है। एक देश एक शिक्षा को अगर दिल्ली के मॉडल के साथ जोड़ा जाएगा तो अनुभव आधारित इस मॉडल का लाभ देशव्यापी स्तर पर मिल सकता है। यह बात सुकून की है कि राजनीति का विषय शिक्षा, स्वास्थ्य होने लगे हैं। इसमें अरविन्द केजरीवाल की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मगर, बड़ा सवाल यही है कि क्या देश को ‘एक देश एक चुनाव’ की जगह एक देश एक शिक्षा पर विचार करने की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए? इसी तर्ज पर ‘एक देश एक हेल्थ केयर सिस्टम’ पर बात नहीं करना चाहिए?

‘एक देश एक चुनाव’ में कहने को खर्च बचेंगे। मगर, न तो चुनाव खर्च करने के लिए होते हैं और चुनावों को नियंत्रित करने से खर्च बचेंगे। सच यह है कि मध्यावधि चुनाव होने पर नया सदन अगर पांच साल में बचे हुए समय के लिए होगा, तो मध्यावधि चुनाव और भी महंगा महसूस होगा। ‘एक देश एक चुनाव’ का सबसे बड़ा नुकसान यही है कि कोई एक भावनात्मक मुद्दा चुनाव को तय कर देगा। जनता के लिए जरूरी मुद्दों पर बात ही नहीं हो सकेगी। अभी समय-समय पर चुनाव होने पर अलग-अलग मुद्दों पर चुनाव होते हैं और यही वजह है कि अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग पार्टी या गठबंधन की सरकारें होती हैं। मगर, सबसे बड़ा सवाल यही है कि ‘एक देश एक चुनाव’ देश की प्राथमिकता है क्या? अरविन्द केजरीवाल का यह सवाल और उसका जवाब भी बहुत अहम है।

– प्रेम कुमार, वरिष्ठ पत्रकार व टीवी पैनलिस्ट @askthepremkumar

Disclaimer : यह शब्द लेखक के हैं। इससे हिंदी ख़बर का कोई लेना – देना नहीं है।

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