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जनता को शक्ति : क्यों भारत को एक विकेन्द्रीकृत ऊर्जा गणराज्य बनाना चाहिए?

Power to the people : एक ऐसे युग में जहाँ ऊर्जा केवल एक वस्तु नहीं, बल्कि संप्रभुता की धमनियों में बहता रक्त बन चुकी है, वहाँ भारत की केंद्रीयीकृत, एकरूपी पावर ग्रिड पर निर्भरता एक अनकही कमजोरी है। जिस ढांचे को हमने अब तक राष्ट्रीय एकता की रीढ़ मानकर सराहा, वही आज हमें ऐसे ख़तरों के प्रति खुला छोड़ देता है जो युद्ध, जलवायु आपदा या वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के टूटने से कम नहीं हैं।

क्या होगा जब सीमावर्ती राज्य में कोई साइबर हमला किसी सबस्टेशन को निशाना बनाए? या जब मानसून की बाढ़ उन ट्रांसमिशन कॉरिडोरों को तबाह कर दे जो दर्जनों जिलों को ऊर्जा पहुंचाते हैं? अगर कोई भू-राजनीतिक तनाव हमारे लिए आवश्यक सौर उपकरणों, लिथियम बैटरियों या इन्वर्टर सिस्टम्स की आपूर्ति रोक दे तो?

ये कोई दूर की कल्पनाएं नहीं हैं। एक ऐसे हाइपर-कनेक्टेड विश्व में, जहाँ ऊर्जा और डिजिटल अवसंरचना एक-दूसरे में घुल-मिल चुके हैं, वहाँ “राष्ट्रीय शक्ति” का अर्थ केवल केंद्रीकृत नियंत्रण नहीं, बल्कि विकेन्द्रीकृत, आत्मनिर्भर लचीलापन होना चाहिए।

21वीं सदी में एक सच्चे संप्रभु भारत के निर्माण की शुरुआत हमें अपनी 7 लाख गांवों की पुनर्कल्पना से करनी होगी — न कि उन्हें शहरीकरण की प्रतीक्षा में बैठे विकासशील परिक्षेत्र मानकर, बल्कि उन्हें ऐसे जीवंत, आत्मनिर्भर सूक्ष्म-आर्थिक तंत्र के रूप में देखना होगा जो स्वयं ऊर्जा पैदा कर सकें, खुद को खिला सकें और स्वयं को स्थायी रूप से चलाने में सक्षम हों।

ये गांव, यदि उन्हें सही उपकरण और भरोसा दिया जाए, तो भारत की ऊर्जा आत्मनिर्भरता की नींव बन सकते हैं — किसी राष्ट्रीय तार से बंधे होने के कारण नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक परिवेश में रचे-बसे, अपने लोगों द्वारा स्वामित्व में लिए गए और वैश्विक उथल-पुथल के बीच भी अडिग बने रहने वाले आत्म-निर्भर ऊर्जा तंत्र बनकर। भले ही भारत ने विद्युतीकरण के क्षेत्र में सराहनीय प्रगति की हो, ग्रामीण भारत में ऊर्जा सुरक्षा अब भी बेहद कमजोर और अस्थिर बनी हुई है।

“100% गांवों के विद्युतीकरण” के आंकड़े के पीछे रोज़मर्रा की हकीकत छुपी है — वोल्टेज का गिरना, ब्राउनआउट्स (अर्ध-बिजली कटौती) और बार-बार लोड शेडिंग। कई राज्यों में कृषि फीडर भरोसेमंद नहीं हैं, और घरेलू कनेक्शन इस बात की गारंटी नहीं देते कि बिजली उपयोग लायक होगी। हमने कनेक्शन तो दे दिए हैं, लेकिन आत्मनिर्भरता नहीं बनाई।

अब भी जब ज़िले की ट्रांसमिशन लाइन फेल होती है, तो पूरा गांव अंधेरे में डूब जाता है। किसान की फसल तब सड़ जाती है जब बिजली कटौती के कारण कोल्ड स्टोरेज बंद हो जाता है। स्वास्थ्य केंद्र को वैक्सीन अभियान रोकना पड़ता है क्योंकि इन्वर्टर चार्ज नहीं हो पाया।

ये केवल प्रशासनिक अक्षमताएं नहीं हैं। ये इस बात के सबूत हैं कि हमारी ऊर्जा प्रणाली कभी विकेन्द्रीकृत और गरिमा-सम्पन्न लचीलापन देने के लिए बनाई ही नहीं गई थी। अब समय आ गया है कि भारत ग्रिड-निर्भर सोच से बाहर निकलकर एक विकेन्द्रीकृत ऊर्जा रणनीति की ओर बढ़े, जो हर समुदाय की अपनी जरूरतों, क्षमताओं और आकांक्षाओं पर आधारित हो।

रूफटॉप सोलर (घरों की छतों पर सोलर पैनल) को शहरी क्षेत्रों की “विशेष सुविधा” नहीं, बल्कि हर घर, स्कूल और पंचायत भवन की मूलभूत अवसंरचना का हिस्सा बनाना होगा। एग्रिवोल्टैक्स यानी फसलों के ऊपर सोलर पैनल लगाना, इस खूबसूरत तकनीक को एक पायलट परियोजना की सीमाओं से निकालकर राष्ट्रीय रणनीति बनाना चाहिए। इससे किसान एक ही ज़मीन पर अन्न भी उगा सकते हैं और बिजली भी पैदा कर सकते हैं, जिससे उन्हें आय भी मिलती है और जलवायु संकट से सुरक्षा भी।

गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्यों में एग्रिवोल्टैक्स पहल ने तकनीकी सफलता के साथ-साथ सांस्कृतिक स्वीकृति भी हासिल की है। कुछ गांवों में महिलाएं अब अपनी “सौर फसल” (solar harvest) की बात उसी गर्व से करती हैं जैसे वे मानसून की पैदावार पर करती हैं।

इस बीच, बायोगैस सिस्टम भारत की सबसे कम उपयोग की गई परिसंपत्तियों में से एक बने हुए हैं। मवेशियों, फसल अवशेषों और जैविक कचरे की भरपूर उपलब्धता के साथ, ग्रामीण भारत के पास विकेन्द्रीकृत गैस ग्रिड्स के लिए आवश्यक कच्चा माल पहले से मौजूद है — जो स्वच्छ खाना पकाने, रोशनी, और छोटे स्तर पर बिजली उत्पादन की सुविधा दे सकते हैं।

जब इन बायोगैस संयंत्रों का संचालन महिला स्वयं सहायता समूहों या किसान सहकारी समितियों द्वारा किया जाता है, तो ये केवल ऊर्जा समाधान नहीं रहते — ये स्थानीय उद्यम भी बन जाते हैं। इससे ग्रामीण रोजगार पैदा होते हैं, एलपीजी पर निर्भरता कम होती है, और कचरे से संपत्ति (waste to wealth) की परिकल्पना पूरी होती है।

आयातित सोलर मॉड्यूल्स या लिथियम-आयन बैटरियों के विपरीत, बायोगैस अवसंरचना को मुख्यतः घरेलू सामग्री और कौशल का उपयोग करके ही बनाया, संचालित और विस्तारित किया जा सकता है। इसके अलावा सोलर माइक्रोग्रिड्स भी हैं — छोटे, मॉड्यूलर सिस्टम जो सोलर पैनलों, बैटरियों और स्मार्ट कंट्रोलर्स का संयोजन होते हैं — जो पूरे टोले, स्वास्थ्य केंद्रों या सिंचाई प्रणालियों को बिजली दे सकते हैं।

ये ग्रिड्स अक्सर स्थानीय उद्यमियों या सहकारी समितियों द्वारा चलाए जाते हैं, और ये मुख्य ग्रिड से स्वतंत्र रूप से या उसके साथ मिलकर काम कर सकते हैं। बिहार में Husk Power जैसी कंपनियों ने दिखाया है कि माइक्रोग्रिड्स सबसे गरीब समुदायों की सेवा करते हुए भी व्यावसायिक रूप से टिकाऊ हो सकते हैं।

वैश्विक स्तर पर यह आंदोलन तेजी से गति पकड़ रहा है। जर्मनी के Energiewende कार्यक्रम ने सैकड़ों नागरिक-स्वामित्व वाली ऊर्जा सहकारी समितियों को पनपते हुए देखा है। बांग्लादेश में 40 लाख से अधिक घर सोलर होम सिस्टम के ज़रिए ग्रिड से स्वतंत्र होकर बिजली पा रहे हैं। सब-सहारा अफ्रीका में, माइक्रोग्रिड उद्यमिता आखिरी छोर के समुदायों तक बिजली पहुँचा रही है — बिना केंद्रीय अवसंरचना का इंतज़ार किए।

भारत, अपनी जनसंख्या के पैमाने और उद्यमशील ऊर्जा के साथ, इस वैश्विक विकेंद्रीकरण आंदोलन का नेतृत्व कर सकता है।यदि वह इसे संस्थागत रूप दे। विकेंद्रीकृत ऊर्जा के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क तकनीकी या वित्तीय नहीं है। यह सांस्कृतिक है। यह इस बात को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है कि हम “विकास” को किस रूप में देखते हैं।

बहुत लंबे समय से हमने विकास को एक ऊपर से नीचे आने वाली, शहरी-केंद्रित दृष्टि से देखा है। गांव को इसलिए बिजली दो ताकि वह कस्बा बन सके, कस्बे को शहरीकरण दो ताकि वह शहर बन सके, लेकिन अगर हम इस सोच को उलट दें तो क्या होगा? अगर हम हर गांव को एक आत्मनिर्भर इकाई बनने का अधिकार दें,जो राजधानी पर निर्भर नहीं, बल्कि गरिमा के साथ उससे जुड़ी हो? अगर ग्रामीण भारत पलायन का स्रोत न बनकर अवसरों, उद्यमशीलता और नवाचार का गंतव्य बन जाए?

यह ऊर्जा संप्रभुता का नया मॉडल एक समेकित दृष्टिकोण की मांग करता है — जहाँ विकेंद्रीकरण का मतलब अलगाव नहीं, और स्थानीय स्वामित्व को बड़े पैमाने की पूंजी द्वारा मजबूती मिले, न कि प्रतिस्थापित किया जाए। कल्पना कीजिए, एक सौर माइक्रोग्रिड जिसे स्थानीय महिला सामूहिक की सह-स्वामित्व में चलाया जा रहा है, लेकिन उसे एक क्लीन टेक कंपनी द्वारा PPP मॉडल (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) के ज़रिए वित्तपोषित और रखरखाव किया जा रहा है।

या एग्रिवोल्टैक्स क्लस्टर जिन्हें NABARD द्वारा समर्थित ऋण से मदद मिली हो, और जिनकी बिजली पास के स्कूलों या डिजिटल सेवा केंद्रों को सीधे बेची जा रही हो। यह कोई काल्पनिक यूटोपिया नहीं है — यह मॉडल भारत के कई हिस्सों में पहले से ही छिटपुट रूप में आकार ले रहा है। अब ज़रूरत है तो बस पैमाने, समन्वय, और राष्ट्रीय संकल्प की।

वहां तक पहुंचने के लिए हमें एक अहम लेकिन अक्सर अनदेखे गए पहलू से भी निपटना होगा: भारत की ऊर्जा हार्डवेयर पर विदेशी निर्भरता। आज हमारी 80% से अधिक सोलर मॉड्यूल्स और लगभग सभी उन्नत बैटरी सेल्स आयात किए जाते हैं। हमारी तथाकथित “ऊर्जा संक्रमण” प्रक्रिया एक नई तकनीकी परनिर्भरता का रूप ले रही है।

संप्रभुता का मतलब केवल देश में ऊर्जा उत्पादन नहीं है — इसका मतलब है उस उत्पादन के साधनों का स्वामित्व भी हमारे पास हो। इसका अर्थ है:

  • भारतीय बैटरी तकनीकों में निवेश,
  • इन्वर्टर निर्माण को बढ़ावा,
  • सोलर मॉड्यूल नवाचार,
  • और नियंत्रण प्रणालियों (control systems) का विकास।

इसका यह भी अर्थ है कि हम भारतीय AI स्टार्टअप्स का समर्थन करें, जो ग्रिड ऑप्टिमाइज़ेशन, प्रेडिक्टिव मेंटेनेंस और माइक्रोग्रिड ऑटोमेशन पर काम कर रहे हैं। वे उपकरण जो विकेन्द्रीकृत प्रणालियों को अलग-थलग पायलट प्रोजेक्ट्स से आगे बढ़ाकर बुद्धिमान, आपस में जुड़ी हुई अवसंरचनाएं बना सकते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात, विकेन्द्रीकृत ऊर्जा को लोकतांत्रिक स्वामित्व का एक औजार बनना होगा। स्वयं सहायता समूहों (SHGs), युवा मंडलों, किसान संगठनों और पंचायतों की भागीदारी केवल एक “समावेशी पहल” नहीं है — यह पूरी प्रणाली की लचीलापन और स्थिरता की नींव है।

जब समुदाय अपनी ऊर्जा प्रणालियों का स्वयं प्रबंधन करते हैं, तो वे उसकी देखभाल करते हैं, उसे बचाते हैं, और उसमें सुधार लाते हैं, जब वे केवल उपभोक्ता होते हैं, तो वे सिर्फ इंतज़ार करते हैं, जब समुदाय केवल उपभोक्ता होते हैं, तो वे बस रोशनी लौटने का इंतज़ार करते हैंग्रामीण विद्युतीकरण हमेशा से केवल बिजली पहुंचाने का विषय नहीं था — यह गरिमा से जुड़ा था। और अब, यह संप्रभुता का प्रश्न बन चुका है।

अब समय आ गया है कि भारत एक नई राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत करे — ऐसा मिशन जो केवल मेगावॉट बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि माइक्रो-इकोसिस्टम्स यानी छोटे, आत्मनिर्भर ऊर्जा तंत्रों को विकसित करने के लिए हो।

आइए इसे नाम दें: मिशन स्वतंत्र ऊर्जा

इसका लक्ष्य: 2047 तक, जब भारत अपनी आज़ादी के 100 वर्ष पूरे करेगा, हर गांव इतना सक्षम हो कि वह कम से कम 10 दिन तक बिना किसी बाहरी बिजली आपूर्ति के खुद को चला सके

यह राष्ट्रीय ग्रिड का विरोध नहीं है — यह उसका पूरक है।
एक विकेन्द्रीकृत भारत एक मजबूत भारत है।
एक ऊर्जा-संप्रभु भारत वह है जहाँ एक जगह का संकट पूरे देश को अंधेरे में न डाल सके।

हम जिस दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं, वह अनिश्चितताओं से भरी है, जहाँ युद्ध बंदरगाहों को ठप कर सकते हैं,
वायरस शहरों को अपंग बना सकते हैं, साइबर हमले बुनियादी ढांचे को पंगु कर सकते हैं और जलवायु आपदाएं केंद्रीकृत प्रणालियों की सीमाओं की परीक्षा लेती रहेंगी।

इसका जवाब ऊंचे टावरों और मोटी तारों का निर्माण नहीं हो सकता। इसका जवाब है। स्मार्ट गांव, सशक्त नागरिक, और एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था, जहाँ ऊर्जा उसी जगह उत्पन्न हो जहाँ उसका उपभोग होता है और वह भी उन्हीं लोगों के द्वारा, जिनका जीवन उस पर सबसे अधिक निर्भर करता है।

भारत का भविष्य केवल राजधानी के गलियारों में नहीं गढ़ा जाएगा। यह उभरेगा हमारे घरों की छतों से, उन खेतों से जहाँ फसलें और सोलर पैनल साथ-साथ उगते हैं, उन गौशालाओं से जहाँ कचरा गैस में बदलता है और उन आंगनों से जहाँ ग्रामीण उद्यमी केवल बिजली नहीं, गर्व से रोशनी जलाए रखते हैं।

Research Paper By Sarwesh Singh

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