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Bihar suicide case: टूटते हौसलों के अल्फाज़, खत्म होती जिंदगी की आवाज़

बिहार के जमुई स्थित पालीटेक्निक कॉलेज के हॉस्टल के एक कमरे में फांसी लगाकर जान देने वाली शालिनी कुमारी का सुसाइड नोट मिला है। सुसाइड नोट में साफ है कि शालिनी काफी निराश थी। कोटा में भी कई विद्यार्थियों ने असफलता के भय से सुसाइड किया। ये खबर इसलिए क्योंकि हिन्दी ख़बर चाहता है कि आगे कोई बच्चा इस तरह की नकारात्मकता मन में न रखे। वो कोई गलत कदम न उठाए।

वो जिंदगी से नहीं हारी थी, बस एक इम्तिहान में पास न हो सकी

वो जिंदगी से नहीं हारी थी, बस एक इम्तिहान में पास नहीं हो सकी। वो फिर से लड़ना चाहती थी उस इम्तिहान से, अपनी कमजोरियों से, जीत कर दिखाना चाहती थी जहान को, लेकिन वो हार गई अपने मन से, अपनों के तानों से, लेकिन वो आज भी किसी को दोष नहीं देती। देती भी कैसे एक मां है जिसने उसे नौ महीने कोख में तो अठारह वर्ष अपने आँचल में पाला है। एक पिता है जिसने कभी अपने कांधे पर बैठाकर उसे दुनिया दिखाई है। तो आखिर दोष किसका है…। हमारी महत्वाकांक्षाओं का या हमारी मानसिकता का। दरअसल ये दोष उस समाज का है जो पद को ही सम्मान देता है। ये दोष उस समाज का है जो कुछ इम्तिहान में हारे लोगों को हीनदृष्टि से देखना शुरू कर देता है। जरूरत है बदलने की। अपनी उम्मीदों के बोझ तले बच्चों का जीवन न कुचलने की। ये कहानी सिर्फ बिहार के मसौढ़ा गांव की रहने वाली शालिनी (18) की नहीं, बल्कि ये कहानी हर उस विद्यार्थी की है जो तथाकथित असफलता के बाद अपनी जिंदगी की डोर तोड़ लेते हैं।

हम नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा

कई बार हमारे और आपके बच्चे किसी परीक्षा में सफल नहीं हो पाते। लेकिन उस मुश्किल घड़ी में अगर घर वाले ही उसे न समझें या न समझाएं तो बात बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। जरूरत है कि हम उसकी कमजोरियों को पहचानें लेकिन उसका हौसला न तोड़ें। उसे बताएं कि जिंदगी सिर्फ इन चंद इम्तिहानों में सिमटकर रहने का नाम नहीं। जिंदगी और भी है…

क्या था मामला

बिहार के जमुई स्थित पॉलीटेक्निक कॉलेज में पढ़ने आई छात्रा शालिनी कुमारी ने कॉलेज हॉस्टल के एक कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। इससे पहले उसने एक सुसाइड नोट भी लिखा था। उस नोट में साफ जाहिर है कि कैसे शालिनी परीक्षा में असफल होने पर निराश थी। वो चाहती थी कि उसे एक अवसर और मिले लेकिन ऐसा न हो सका।

क्या कहते हैं मनोचिकित्सक

मनोचिकित्सक की मानें तो बच्चों से स्वस्थ संवाद जरूरी है। ऐसा नहीं कि हम बच्चों को खुली छूट दें लेकिन उनपर अपनी महत्वाकांक्षाएं भी न थोपें। अपने बच्चों की तुलना दूसरे बच्चों से करते समय अपने बच्चे को कमजोर बताकर उनमें हीन भावना न भरें। उसे समझें और जिंदगी के हर पहलू पर उससे खुलकर बात करें तो ऐसी घटनाएं काफी हद तक कम हो सकती हैं।

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