माँ ने मज़दूरी कर अकेले पाला, आज बेटी दुनिया भर में रौशन कर रही हैं नाम

कॉमनवेल्थ यूथ गेम्स 2023 में देश के कई प्रतिभावान एथलीट्स ने बेहतरीन खेल दिखाया है; इनमें से एक नाम जो उभर कर आया है वह है झारखंड के आदिवासी इलाके से आने वाली एथलीट आशा किरण बारला का नाम है!!
आशा ने इस टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन किया और भारत के लिए सिल्वर मेडल जीता है। आज उनका नाम देशवासियों की ज़ुबान पर है लेकिन एक समय था जब वह अंधकार और मुसीबतों से घिरी ज़िंदगी में संघर्ष का सामना कर रही थीं। एक सफल एथलीट के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचना उनके लिए बेहद बड़ी बात है क्योंकि वह काफ़ी पिछड़े हुए इलाके वह बेहद गरीब परिवार से आती हैं।
आशा किरण झारखंड के गुमला शहर से 70 किलोमीटर दूर पहाड़ों की तलहटी में बसे नवाडिह गांव की रहने वाली हैं। यह एक ट्राइबल गाँव है और नक्सल प्रभावित इलाके में स्थित होने के कारण यहाँ मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। 22 गाँवों के इस घर में यहाँ केवल 2 पक्के मकान हैं।
आशा किरण चार बहनें व दो भाई हैं। पिता विलियम्स बारला की नौ साल पहले कैंसर से मृत्यु हो गई थी। उनके पिता एक शिक्षक थे जो गाँव के स्कूल में पढ़ाते थे; उनके निधन के बाद स्कूल भी बंद हो गया। उनकी माँ खेतों में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करतीं और उसी से घर का खर्च चलातीं; साथ ही उनके भाई आशीष भी मज़दूरी करते हैं।
सेंट मेरीज़ की टीचर सिस्टर दिव्या जोजो और उनके वर्तमान कोच आशु भाटिया की वजह से आशा किरण के जीवन में बदलाव आया। जब 2016 में आशा की बड़ी बहन ने ज़िला स्तरीय इवेंट में मेडल जीते; उसके बाद सेंट मेरीज़ स्कूल की गेम्स टीचर सिस्टर दिव्या जोजो को पता चला कि उनकी छोटी बहन भी बहुत अच्छी एथलीट हैं। इसके बाद सिस्टर जोजो की पहल से 2017 में रांची-गुमला बॉर्डर के नज़दीक महुगांव के सेंट मेरीज़ स्कूल में उनका एडमिशन कराया गया।
अब दोनों बहनें नंगे पैर 7 किलोमीटर दूर स्कूल पैदल चलकर जाती थीं। शुरुआत में वे खाली पेट स्कूल जाने को मजबूर थीं, और इसी कारण एक्स्ट्रा ट्रेनिंग में भी भाग नहीं ली पाती थीं। जब टीचर दिव्या को इस बात की जानकारी हुई, तो उन्होंने दोनों बहनों के नियमित खाने का भी इंतेज़ाम किया और उनकी ट्रेनिंग भी शुरू कराई। शुरुआत में आशा किरण बारला ने बिना जूतों और ट्रैक सूट के ही कई प्रतियोगिताएं जीतीं!
2017 में ही आशा किरण ने विशाखापट्टनम में आयोजित अंडर-14 प्रतियोगिता में गोल्ड जीता, जो राष्ट्रीय स्तर पर यह उनका पहला गोल्ड था। इसके बाद 2018 में उनका दाख़िला खेलगांव, रांची में हुआ। लॉकडाउन के दौरान जब खेलगांव में ट्रेनिंग बंद हो गई तब वह बोकारो थर्मल स्थित आशु भाटिया की एकेडमी में ट्रेनिंग के जुड़ीं, जहाँ कोच आशु भाटिया ने उनकी बहुत मदद की।
इसके बाद उन्होंने खेलो इंडिया गेम्स और 2019 में कज़ाकिस्तान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय आमंत्रण एथलेटिक्स कंपटीशन में 400 मीटर रेस में गोल्ड जीता। और अब कॉमनवेल्थ यूथ गेम्स में सिल्वर मेडल हासिल किया हैं। आज झारखण्ड एक्सप्रेस कहीं जाने वालीं आशा कई लोगों के लिए एक मिसाल बन चुकी हैं।