क्या है कॉलेजियम सिस्टम, जिसपर आए दिन विवाद होता है

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भारत के लोकतंत्र की गिनती दुनिया के स्वस्थतम लोकतंत्र में की जाती है, ये तो आपने कई बार सुना होगा। लेकिन भारत के न्याय व्यव्स्था को भी दुनिया के शीर्ष देशों में रखा जाता है। कुछ देशों में कोर्ट का काम संसद द्वारा बनाए गए कानून के सही पालन पर निगरानी करने भर की होती है लेकिन भारत के कोर्ट को अधिकार है कि वो संसद द्वारा बनाए गए कानून के मूल चेतना को चुनौती दे सकती है। न्यायिक प्रणाली में लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए कॉलेजियम प्रणाली का एक नया तंत्र स्थापित किया गया था।

कॉलेजियम सिस्टम को 1993 में लागू किया गया था। कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है, बल्कि न्यायपालिका में सर्वोच्च सत्यनिष्ठा वाले न्यायाधीशों के एक निकाय द्वारा सामूहिक रूप से बनाई गई राय है।


बता दें कॉलेजियम सिस्टम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की एक प्रणाली है जो शीर्ष कोर्ट के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। इसमें संसद के अधिनियम या संविधान के प्रावधान का कोई योगदान नही है।

सरकार की भुमिका


कॉलेजियम सिस्टम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की भुमिका सीमित है या कहें की प्रक्रियात्मक है। कॉलेजियम के तहत सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों के समूह द्वारा सरकार को अनुभव और कार्य शैली के आधार पर निचले कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सुची भेजनी होती है, जिसके बाद उनकी नियुक्ति की जाती है। सरकार भेजे गए नामों पर आपत्ति जता सकती है लेकिन खारिज करने की शक्ति सरकार को नही होती है।


विवाद का कारण

पारदर्शिता की कमी के वजह से कॉलेजियम पर विवाद होता आया है। लोगों का मानना है कि इस प्रक्रिया के तहत जजों के वरिष्ठता के सही आंकलन की ठोस जानकारी नही मिलती है। कई वजहों में एक वजह ये भी माना जाता है कि असमान प्रतिनिधित्व के कारण इस प्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं। असमान प्रतिनिधित्व के कारण उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम मानी जाती रही है।

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