अहम ने वहम पाल रखा है… : दरक रहा इंडी गठबंधन, बीजेपी एक बार फिर करेगी शानदार प्रदर्शन!

Loksabha Election

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Loksabha Election: पिछले 10 सालों से देश की सत्ता पर आसीन राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (एनडीए) इन चुनावों में जीत हासिल कर हैट्रिक लगाने के मूड में दिखाई दे रहा है। राजनीतिक जानकारों का ऐसा मानना है कि भाजपा नेतृत्व एनडीए गठबंधन इन चुनावों में पिछले दोनों चुनावों के आंकड़ों पर असर डालेगा और इस बार लोकसभा चुनावों में एनडीए 400 सीटों का आंकड़ा आसानी से पार कर लेगा। वहीं इंडी गठबंधन की सबसे बड़ी परेशानी कांग्रेस की हठधर्मिता मानी जा रही है। वह खुद को ही मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में मानती है। इंडी गठबंधन में कांग्रेस की हालत किसी की लिखी इन पंक्तियों से बखूबी बयां होती है… ‘अहम ने वहम पाल रखा है कि सारा कारवां उसी ने संभाल रखा है’।

राष्ट्रीय ही नहीं, भाजपा को दिलाई वैश्विक पहचान

हालांकि पिछले दोनों (2014 और 2019) लोकसभा चुनावों पर नजर डाली जाए तो समझ में आएगा कि जैसे जैसे इन चुनावों के दौरान पिछले दस सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय पार्टी से वैश्विक पार्टी के रूप में उभरी है। इसका बड़ा कारण पीएम मोदी के नेतृत्व में देश में पिछले 10 सालों में हुआ सबका साथ सबका विकास है। अपनी स्थापना के चार दशकों में पार्टी शून्य से 400 का सफर तय करने को तैयार है।

अंत्योदय वर्ग के उत्थान में दिखाई दिलचस्पी

पीएम मोदी ने देश के अंत्योदय वर्ग के उत्थान को अपनी पहली प्राथमिकता में शामिल किया है। पीएम मोदी ने पीएम विश्वकर्मा योजना की शुरुआत करके गाड़िया लुहार, कारपेंटर, मोची और न जाने इस वर्ग के कितने ही लोगों की आजीविका को बेहतर बनाने के लिए कुछ संकल्प लिए हैं और जिन्हें वे हर तरह से पूरा करने में जुटे हुए हैं…

एक दशक से राजनीति की पिच पर खूंटा गाड़कर बनाया वर्चस्व

चुनावी माहौल है तो विपक्ष की चर्चा करना भी लाजिमी है। क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि बिना विपक्ष के सत्ता पक्ष का कोई महत्व नहीं रह जाता है लेकिन भारत जैसे वृहद देश में विपक्ष जैसा कुछ भी दिखाई नहीं देता। उत्तर भारत को यदि छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय दलों की अपनी पहचान है। पिछले 10 सालों से देश की सत्ता पर पीएम मोदी राजनीति की पिच पर खूंटा गाड़कर बल्लेबाजी करते नजर आ रहे हैं।

गांधी परिवार का ही था दबदबा, बिखराव की कगार पर पहुंची विपक्ष

कांग्रेस पार्टी को मुख्य विपक्षी पार्टी मानने के लिए उनके अपने घटक दल ही तैयार नहीं हैं। दरअसल 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के खाते में सिर्फ 52 सीटें आई थीं। यही कारण था कि बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), दक्षिण के तमिलनाडु में वर्तमान में सत्तारूढ़ पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके), यूपी में मजबूत विपक्ष के रूप में समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, दिल्ली व पंजाब में अपना रुतबा दिखा चुकी आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल किसी भी सूरत में कांग्रेस पार्टी को विपक्ष का मुख्य नेतृत्व देने को तैयार नहीं थे।

कांग्रेस को ही मिले मुख्य विपक्षी गठबंधन का तमगा…

वहीं कांग्रेस पार्टी के नेता भी झुकने को तैयार नहीं हुए। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सोनिया गांधी व गांधी परिवार के अन्य सदस्यों ने भी लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस को ही देखना पसंद किया। चाहे सीटें भले ही 52 ही हों। 2014 में तो ये आंकड़ा 44 तक ही सिमट कर रह गया था। लेकिन तब वरिष्ठ कांग्रेसियों ने भी यही कहा कि भारतीय जनता पार्टी को यदि कोई एक मजबूत विपक्ष के रूप में चुनौती दे सकती है तो वह कांग्रेस पार्टी ही है। देश में कांग्रेस पार्टी का दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

बढ़ती लोकप्रियता भी बनी कारण, कोई नहीं है टक्कर में

पीएम मोदी की देश और दुनिया में बढ़ती लोकप्रियता भी इसका एक बड़ा कारण रहा है कि कोई उन्हें मजबूत चुनौती देने वाला ही नहीं या फिर कोई उन्हें चुनौती देना ही नहीं चाहता। क्योंकि इस समय कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं का भी मानना है कि पीएम मोदी के स्तर का कोई भी व्यक्तित्व कांग्रेस पार्टी में मौजूद नहीं है। या यूं कहें कि मोदी को वर्तमान में टक्कर देने वाला दूसरा कोई शख्स नहीं है।

कांग्रेस अध्यक्ष ने पीएम को बताया डिक्टेटरशिप राजनेता

तभी तो पिछले ही दिनों कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने अपने एक बयान में कहा था कि आम लोगों के जीवन में एक या दो बार और वोट डालने के मौके आएंगे क्योंकि इसके बाद देश में चुनावों का मौसम खत्म हो जाएगा। अर्थात इसके बाद अब देश में फिर कभी चुनाव नहीं होंगे। क्योंकि उन्होंने पीएम मोदी की तुलना हिटलर और नॉर्थ कोरिया के वर्तमान प्रेसिडेंट किम जोंग उन की डिक्टेटरशिप वाली नीतियों से की थी। उन्होंने कहा था कि देश में संविधान तो सिर्फ दिखावा मात्र रह जाएगा। सारा काम मोदी और उनके बिजनेसमैन मित्रों की संगत में आगे बढ़ेगा।

विपक्ष का लक्ष्य सिर्फ एक- मोदी को कैसे भी हराना

देश के अलग-अलग हिस्सों से राजनीतिक गलियारों में अपनी-अपनी पार्टी का बिगुल बजाने वाले अब सब एक होने को आतुर हैं। लक्ष्य सिर्फ एक ही है। मोदी को बुरी तरह हराना। इसके लिए साम लगे या दाम या फिर दंड वाली नीति का ही क्यों न अनुसरण करना पड़े। अंत में भेद रूपी चाल भी यदि इन राजनीतिक पार्टीयों को चलनी पड़ी तो ये वो चाल भी चलने से नहीं चूकेंगे। सभी एकजुट हुए और सभी ने एक ही नारा दिया। 2023 में मोदी को हटाना है। लेकिन आगामी लोकसभा चुनावों में ये सभी राजनीतिक दल पीएम मोदी को किस तरह हरा पाएंगे ये फॉर्मूला किसी के पास नहीं है।

इन पार्टियों ने योजना बनाने की शुरुआत की थी

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), जेडीयू, महाराष्ट्र महाविकास अघाड़ी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), शिव सेना (यूबीटी), आम आदमी पार्टी (आप), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी सहित कई विपक्षी पार्टियों ने शुरुआत में ये योजना बनाई थी कि यदि हमसब मिलकर इन चुनावों में चुनौती पेश करें तो मोदी को हराया जा सकता है।

नीतीश के साथ छोड़ने के कारण नाराज दिखाई दीं ममता बनर्जी

जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार के महागठबंधन का साथ छोड़ने के कारण बंगाल की सीएम ममता बनर्जी भी उनसे नाराज़ दिखाई दीं। साथ ही कांग्रेस आलाकमान से भी बंगाल की सीएम की पटरी फिट नहीं बैठ रही थी। बंगाल में दीदी ने एकला चलो की नीति पर ही आगे बढ़ने का फैसला किया। बिहार में नीतीश और बंगाल में ममता बनर्जी के फैसलों ने इंडी गठबंधन को पूरी तरह तोड़-मरोड़कर रख दिया।

कांग्रेस और सपा में भी नजर आई थी नाराजगी

सीट शेयरिंग को लेकर समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस आलाकमान के बीच भी कुछ खास बात नहीं बनीं। इसी के कारण कई बार दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ गलत बयानबाजी करते नजर आए। हालांकि बाद में प्रियंका गांधी के बीचबचाव में आने के बाद यूपी में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन पर सहमति जताई गई। दिल्ली और पंजाब में अकेले ही कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों को धूल चटाने वाले आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविन्द केजरीवाल ने भी दीदी की तरह एकला चलने की बात पर ही फोकस किया।

‘युवराज’ की पीएम के रूप में ताजपोशी चाहती थी कांग्रेस

कुल मिलाकर इंडी गठबंधन का परिपक्व न हो पाना, कहीं न कहीं से कांग्रेस का दुर्भाग्य रहा है। क्योंकि इंडी गठबंधन के बहाने कांग्रेस कहीं न कहीं से अपने युवराज राहुल गांधी की प्रधानमंत्री के रूप में ताजपोशी चाहती थी वहीं अन्य बड़े दलों के नेता इसके सरासर खिलाफ नजर आ रहे थे। यही कारण था कि एक के बाद एक बड़े दलों के नेता और दल इंडी गठबंधन से किनारा करते चले गए। बिहार और बंगाल ने इसमें सबसे बड़ी भूमिका अदा की।

…तो कुछ न कुछ जरूर होता

नीतीश यदि भाजपा के साथ फिर से न आकर इंडी गठबंधन को मजबूती प्रदान करते और ममता बनर्जी भी पूरी ताकत के साथ कांग्रेस का साथ देते हुए लोकसभा चुनावों में अपनी ताल ठोकती तो परिणाम कहीं न कहीं से इनके फेवर में जरूर जाते। मत प्रतिशत और सीट शेयरिंग में तो इंडी गठबंधन को जरूर फायदा पहुंचता। हालांकि पीएम मोदी ने अपनी कूटनीति और नये जमाने की राजनीति का दांव खेलकर इंडी गठबंधन ही स्वाहा कर दिया। जैसे ही विपक्षी कोई नई चाल चलते नजर आते वैसे ही पीएम मोदी उस चाल पर अपना कोई नया पैंतरा चलकर उसे धराशायी कर देते।

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