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प्रधानमंत्री सीरीज: पंडित नेहरू की नीति और नियत में क्या था फ़र्क

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नेहरू की महात्मा गांधी से पहली मुलाकात 1916 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन के दौरान ही हुई थी। वो गांधी जी के व्यक्त्तिव से बहुत अधिक प्रभावित हुए थे।

पंडित नेहरू
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कहते है इतिहास एक दिन में नहीं बनता, लेकिन किसी एक दिन की बड़ी घटना इतिहास में एक बड़ा मोड़ ले आती है। स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने के बाद आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहर लाल नेहरू की उपलब्धियों से इतिहास भरा पड़ा है। पंडित नेहरू को वैसे तो देश को बनाने वाला हीरो के तौर पर याद किया जाता है। लेकिन कई लोगों के नजरिए से उन्हें देश के विलेन के रूप में भी पेश किया जाता है। नेहरू वैसे एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतान्त्रिक गणतन्त्र के वास्तुकार मानें जाते थे। पर उनकी कई नीतियां देश के लिए खतरनाक भी साबित हो सकती है ये वो खुद नहीं जानते थे। उनकी कुछ गलत नीतियों पर कई नेताओं ने चेतावनी भी दी थी। लेकिन नेहरू ने इन सभी चेतावनियों को नजर अंदाज कर दिया था।

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भारत की आजादी में नेहरू का योगदान

ज्वाहर लाल नेहरू इंग्लैंड से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद 1912 में भारत आए थे। उसके बाद से उनका राजनीतिक सफर की शुरूआत हुई थी। पंडित नेहरू ने भारत लौटने के कुछ दिनों बाद ही पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन में भाग लिया था। जो पटना के बाकीपोर में हुआ था। इसके साथ ही नेहरू जी 1915 में उत्तर प्रदेश के किसान सभा के फंक्शन में भी एक्टिव हो गए थे। नेहरू की महात्मा गांधी से पहली मुलाकात 1916 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन के दौरान ही हुई थी। वो गांधी जी के व्यक्त्तिव से बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। इसके बाद गांधी जी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आदोलन में नेहरू ने पहली बार नेशनल लेवल के आदोलन में भाग लिया। इस आदोलन को यू समझिए की पंडित नेहरू ही इसे लीड कर रहे थे। इस दौरान उन्हें बिट्रिश सरकार द्वारा अरेस्ट भी किया गया। फिर इसके बाद 1923 में नेहरू जी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (All India Congress Comitee) के जनरल सेक्रेटरी बने।

आधुनिक भारत के निर्माता पं जवाहरलाल नेहरू

नेहरू रिपोर्ट के अनुसार 1928 में कोलकाता सम्मेलन के दौरान नेहरू जी और सुभाष चंद्र बोस पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करते है। जिस पर काग्रेंस के बड़े नेता और गांधी जी इस बात पर सहमत नहीं होते। लेकिन बाद में क्या था, गांधी जी को इन युवा नेता की मांग के आगे झुकना पड़ता है। इसका परिणाम देखने को मिलता है। 1929 के लाहौर कांग्रेस सम्मेलन में, जहां यंग नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाता है। तब पंडित नेहरू जी भारतीय राष्ट्रीय काग्रेंस ने पूर्ण स्वराज की घोषणा कर दी थी यानी ब्रिटिश साम्राज्य से पूरी तरह से स्वतंत्र होकर अपना राज बनाने के लिए संघर्ष करने की प्रतिज्ञा की थी। यहां से कांग्रेस की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिलता है। अब यहां से कांग्रेस की कमान युवा नेता के हाथों में चली जाती है। जिसमें नेहरू को अलावा सुभाष चंद्र बोस जैसे लीडर भी शामिल हुए। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया।

ज्वाहर लाल नेहरू गांधी जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े। चाहे वो नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफी प्रभावित थे और इसीलिए आजादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। फिर क्या 1947 में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। और यही से शुरू हुई नेहरू के प्रधानमंत्री बनने की कहानी।

भारत की आजादी और विभाजन का एलान

इसके बाद 15 अगस्त 1947 भारत की आजादी की तारीख दशकों तक चले संघर्ष और आंदोलनों के बाद अंग्रेजी हुकूमत भारत छोड़ने पर मजबूर हो गई और 14 अगस्‍त की आधी रात भारत को सत्‍ता हस्‍तांतरित कर दी गई। आजाद होने के बाद जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए।

देश का आजादी सिर्फ बंटवारा नहीं बल्कि गरीबी और 40 करोड़ लोगों का पेट भरने का संकट भी साथ लाई थी। पंचवर्षीय योजना देने वाले नेहरू खुद भी मानते थे, कि सरकारी योजनाएं जमीन में पहुंचने से पहले या तो दम तोड़ देती है या पूरा होने में देर लगती थी।

1962 का युद्ध: विश्वासघात या कायरता

देश के लोकतंत्र पिरोने वाले पं नेहरू के आज जितने चाहने वाले है, उतने ही आलोचक भी है। चीन के साथ जब भी बॉर्डर पर विवाद की बात होती है तो 1962 में हुआ युद्ध हमेशा याद आता है। उस युद्ध में चीन के खिलाफ भारत की शर्मनाक हार के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार थे। जिस समय पंडित नेहरू हिंदी चीनी भाई-भाई नारा बुलंद कर रहे थे, उस समय कई नेताओ ने उन्हें चीन को लेकर आगाह किया था। इतना ही नहीं भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन ने अपनी सरकार पर गंभीर आरोप तक लगा दिए थे उन्होंने चीन पर आसानी से विश्वास करने और वास्तविकताओं की अनदेखी के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था।

जवाहर लाल नेहरू ने भी खुद संसद में खेदपूर्वक कहा था, “हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था। नेहरू ने यह भी स्वीकार कर लिया था कि उन्होंने चीन पर भरोसा करके बड़ी गलती कर दी है। नेहरू को लगा चीन सीमा पर झड़प और गशती दल के स्तर पर तू-तू मैं- मैं से ज्यादा और कुछ नही करेगा।

लेकिन बॉर्डर पर चीन की इस करतूत से हर कोई हैरान था भारत को कभी यह शक नहीं हुआ कि चीन हमला भी कर सकता है। कहते है जवाहर लाल नेहरू की गलती की वजह से भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा दी और अपनी जगह ये स्थान चीन को दे दिया।

चीन के साथ संघर्ष के कुछ ही समय बाद नेहरू के स्वास्थ्य में गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे। उन्हें 27 मई 1964 में दिल का दौरा पड़ा और उन्होंने सदा के लिए आंखें बंद कर ली।

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