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रिपोर्ट- पंकज चौधरी

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नई दिल्ली: राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि सरकार तीनों कृषि कानून को वापस ले रही है। विवादास्पद कृषि कानून को वापस लेने के फैसले को गुरू परब के खास मौके पर ऐलान करने के खास मकसद भी हैं। इस एक तीर से पीएम ने पंजाब के लोगों और यूपी, पंजाब के किसानों को साधने की कोशिश की है। बहरहाल , ये तीर निशाने पर लगी या नहीं इसकी जानकारी तो चंद महीनों बाद ही मिलेगी , फिलहाल सरकार तो अपने हाथों किए गए इस जख्म को सहलाती ही नज़र आ रही है।

29 नवंबर से किसान का ट्रैक्टर आंदोलन शुरू होना था

निसंदेह ही इस किसान आंदोलन ने सरकार के आत्मविश्वास को हिला कर रख दिया। इसी महीने 29 नवंबर से किसानों के आंदोलन का अगला चरण शुरू होने वाला था। किसानों ने ऐलान किया था कि 29 नवंबर को किसान 500-500 ट्रैक्टर समेत गाजीपुर बार्डर और टिकरी बार्डर से दिल्ली संसद भवन के लिए रवाना होंगे। किसानों के ट्रैक्टर आंदोलन की झलक सरकार ने इसी साल 26 जनवरी को देखी थी जब राजधानी में चारों तरफ हिंसा का तांडव देखने को मिल रहा था। सरकार निश्चित तौर पर 26 जनवरी के उस दुखद वाक्या को दोहराना नहीं चाहती थी।

इतना ही नहीं, उधर विपक्ष ने भी किसान आंदोलन के मुद्दे पर सदन में सरकार को घेरने का फैसला कर रखा था। सरकार संसद सत्र के दौरान खुद को सदन में और सड़कों पर घिरा हुआ नहीं दिखना चाह रही थी, इसलिए सरकार के पास और कोई विकल्प नहीं बचा था सिवाय कि वो ये ऐलान करे कि हम कृषि कानून को वापस लेते हैं।

उत्तर प्रदेश चुनाव

जानकार बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने यह बड़ा फैसला किया है। इस कानून को लेकर सरकार चौतरफा हमला झेल रही थी। यहां तक कि शिरोमणि अकाली दल ने भी भाजपा का साथ छोड़ दिया। किसान विरोध का ये असर सिर्फ पंजाब ही में नहीं दिख रहा था बल्कि उत्तर प्रदेश के भी कई इलाकों से किसानों के बगावती सुर सुनने में आ रहे थे।

उत्तर प्रदेश चुनाव भाजपा के लिए एक प्रतिष्ठा का सवाल है। सरकार को लगातार ये खुफिया रिपोर्ट मिल रही थी कि किसानों की नाराजगी पूरे उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान इन आंदोलनों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। गन्ने का भुगतान और फसल समर्थन मूल्य के कारण किसान पहले से नाराज थे। किसानों की इस नाराजगी का फायदा राष्ट्रीय लोक दल, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस उठाने की कोशिश कर रही थी। पश्चिम यूपी की 104 सीटों में से 53 सीटों पर किसान निर्णायक भूमिका में है। लिहाजा इस फैसले से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बड़े मुद्दे को खत्म करने की कोशिश की गई।

उत्तर प्रदेश चुनाव भाजपा के लिए एक प्रतिष्ठा का सवाल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के कई वरिष्ठ नेता सरकार को ये बता रहे थे कि यदि ये कानून जारी रहा और किसानों का आंदोलन तेज हुआ तो चुनाव प्रचार के लिए निकलना भी मुश्किल हो जाएगा। कई जगहों पर तो भाजपा सांसद , विधायक औऱ यहां तक कि सरपंचों तक को किसान के गुस्से का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश का लखीमपुर खीरी कांड किसानों के इसी गुस्से का नतीजा था। सरकार को लगातार ये फीडबैक मिल रहा था कि अगर इस कृषि कानून पर जल्दी से कोई कारगर फैसला नहीं लिया गया तो पार्टी को चुनाव में भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

सूत्र बताते हैं कि गुरुवार को दिल्ली में यूपी चुनाव को लेकर भाजपा नेताओं की हुई बैठक में इस मुद्दे पर तीखी बहस हुई। लगभग सभी नेता इस मुद्दे पर एकमत थे कि अगर कृषि कानून को वापस नहीं लिया गया तो पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। बैठक में शामिल वरिष्ठ नेताओं का कहना था कि इस किसान आंदोलन की आंच पूर्वांचल में भी महसूस की जा सकती है। इतना ही नहीं , पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की रिपोर्ट में ये कहा गया कि किसान आंदोलन का सियासी फायदा विरोधी पार्टियां उठाने की भरपूर कोशिश कर रही हैं। साथ ही इस आंदोलन की वजह से भाजपा के खिलाफ एक नकारात्मक माहौल भी बन रहा है।

पंजाब चुनाव

गुरुनानक जयंती दुनिया के सिख समुदाय के लिए एक खास महत्व रखता है। इस पावन मौके पर कृषि कानून को वापिस लेकर भाजपा ने पंजाब के सिख समुदाय को रिझाने की भरपूर कोशिश की है। भाजपा को उम्मीद है कि मोदी सरकार के इस फैसले से वे नाराज सिख समुदाय को अपने पाले में कर पाने में कामयाब होंगे।

दरअसल , पंजाब के करीबन 58 प्रतिशत सिख समुदाय को रिझाने की ये कवायद बीते 17 नवंबर से ही शुरू हो गई थी। उस दिन गृह मंत्री अमित शाह ने करतारपुर कॉरिडोर को फिर से खोलने का फैसला ट्वीट के माध्यम से सुनाया था। अब कृषि कानूनों की वापसी निश्चित रूप से पंजाब के लिए एक सुखद समाचार रहा है।

इस किसान आंदोलन की वजह से भारतीय जनता पार्टी को काफी सियासी घाटा भी उठाना पड़ा है। शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा का साथ छोड़ दिया। जहां तक कैप्टेन अमरिंदर सिंह को नया साथी बनाने की बात है तो कैप्टेन पहले ही कह चुके हैं कि जब तक कृषि कानून को वापस नहीं लिया जाता जब तक वो भाजपा के साथ किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे। अकाली दल के रूठने के बाद भाजपा को पंजाब में एक दोस्त की तलाश है और कृषि कानून को वापस लेकर उन्होंने कैप्टेन की पार्टी के साथ गठबंधन करने का मार्ग ही प्रशस्त किया है।

इसी साल फरवरी में पंजाब में किसान आंदोलन के बीच सात नगर निगमों, 109 नगर परिषदों और नगर पंचायतों के चुनाव में कांग्रेस की एकतरफा जीत हुई थी। जबकि भाजपा के हाथ सिर्फ 58 वार्ड आए। भाजपा को महज 2.67% ही वोट मिले थे। जबकि भाजपा यहां अपना संगठन मजबूत करने की कवायद कर रही है।

चुनाव में विपक्षी धार कुंद होगी

यूं तो दावा किया जा रहा था कि किसान आंदोलन गैर राजनीतिक है , लेकिन गैर राजनीतिक होते हुए भी इस आंदोलन को सभी राजनीतिक दल समर्थन दे रहे थे। तकरीबन सभी विपक्षी पार्टियां एक स्वर में किसान आंदोलन के साथ थी। यूं तो किसान नेता अपने मंच पर किसी भी सियासी दल के नेताओं को न तो बैठने और न ही भाषण देने की इजाजत दे रहे थे , फिर भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, सपा और रालोद के नेता किसानों के बीच पहुंचकर उनका समर्थन कर रहे थे और सरकार के खिलाफ एक माहौल बन रहा था।

सरकार के पास ये इनपुट था कि आगामी चुनाव में विपक्ष किसान आंदोलन को एक बड़ा मुद्दा बनाने जा रहा था। और विपक्ष के हाथ से मुद्दा छिन लेने की रणनीति के तरह ही थक हार कर सरकार ने इन तीनों कृषि कानूनों की वापसी का फैसला लिया है।

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