प्रधानमंत्री सीरीज़: कैसें बोफोर्स घोटाले ने छीनी थी राजीव गांधी की सत्ता?

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बोफोर्स डील वह घपला जिसने देश की एक बड़ी पार्टी कांग्रेस की कमजोर कर दिया। इसकी वजह से कांग्रेस को सत्ता तक गंवानी पड़ी थी।

बोफोर्स
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40 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाले श्री राजीव गांधी भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री थे। इन पांच वर्षों में ही इस युवा प्रधानमंत्री ने अपने कार्यों से देश की जनता पर अमिट छाप छोड़ी। वैसें तो कहा जाता है की राजीव राजनीति में बिलकुल भी रुचि नहीं रखते थे, लेकिन हालातों ने उन्हें राजनिति का रुख करने के लिए धकेल दिया। प्रधानमंत्री के तौर पर इनका कार्यकाल बहुत छोटा रहा। लेकिन अपने कार्यकाल में इन्होंने देश के लिए बहुत कुछ किया। जहां एक ओर राजीव गांधी ने आधुनिक भारत की नींव रखने की दिशा में काम किया। वहीं दूसरी ओर बोफोर्स घोटाला जिसकी वजह से 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार को सत्ता से बाहर जाना पड़ा था।

पायलट से राजनीति तक का सफर

राजीव गांधी का हवाई उड़ान सबसे बड़ा जुनून था। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग करने के बाद घर लौंटे। उन्होंने दिल्ली फ्लाइंग क्लब की प्रवेश परीक्षा पास की एवं वाणिज्यिक पायलट का लाइसेंस प्राप्त किया। 1970 में घरेलू राष्ट्रीय जहाज कंपनी इंडियन एयरलाइंस के पायलट बन गए। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पढने के दौरान राजीव गाँधी की मुलाकात एंटोनिया मैनो से हुई, जिनसे वे प्यार कर बैठे और दोनों ने 1969 में शादी कर ली। विवाह के बाद एंटोनिया मैनो का नाम परिवर्तित कर सोनिया गाँधी हो गया।

लेकिन 1984 में उनकी मां और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने कांग्रेस और फिर देश की बागडोर संभाली। अपनी मां की हत्या के शोक से उबरने के बाद उन्होंने लोकसभा के लिए चुनाव कराने का आदेश दिया। उस चुनाव में कांग्रेस को पिछले सात चुनावों की तुलना में लोकप्रिय वोट अधिक अनुपात में मिले और पार्टी ने 508 में से रिकॉर्ड 401 सीटें हासिल कीं। और 40 साल की उम्र में देश के प्रधानमंत्री बन गए।

राजीव गाँधी एक युवा प्रधानमंत्री थे। इन्होने देश में संचार क्रांति, कंप्यूटर जैसे विज्ञान को भारत में आरम्भ किया। राजीव गाँधी ने शिक्षा को हर तरफ से बढाया, एवम 18 वर्ष के युवाओ को मत अधिकार और पंचायती राज को भी शामिल किया। वहीं 1980 और 1990 के बीच राजीव सरकार पर भ्रष्टाचारी होने का आरोप लगाया गया। इन पर बोफोर्स कांड के लिए भष्टाचारी होने के आरोप लगे। आइए आज शुरू से जानें क्या है बोफोर्स मामला चलते 1980 के दशक में देश की राजनीति में भूचाल सा आ गया था।

क्या है बोफोर्स घोटाला?

24 मार्च, 1986 भारत सरकार और स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 1,437 करोड़ रुपये का सौदा हुआ। इसमें भारतीय थल सेना को 155 एमएम की 400 होवित्जर तोप की सप्लाई के लिए हुआ था। 16 अप्रैल, 1987 में स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारी को घूस दिए हैं। 60 करोड़ रुपये घूस देने का दावा किया गया।

बोफोर्स जांच में जेपीसी कमिटी का गठन

20 अप्रैल, 1987 राजीव गांधी ने लोकसभा में बताया था कि न ही कोई रिश्वत दी गई और न ही बीच में किसी बिचौलिये की भूमिका थी। इसके बाद 6 अगस्त, 1987 रिश्वतखोरी के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय कमिटी का गठन हुआ। इसका नेतृत्व पूर्व केंद्रीय मंत्री बी.शंकरानंद ने किया। 1989 में संयुक्त संसदीय कमिटी ने संसद को जांच की रिपोर्ट सौंपी। ये भारतीय राजनीति में एक ऐसी बड़ी घटना थी, जिसने राजीव गांधी पर दाग लग दिया था। जिसके कारण उन्हें चुनाव में करारी हार झेलनी पड़ी थी।

1989 में हुए आम चुनावों में 404 सांसदों वाली कांग्रेस पार्टी को महज 193 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। इसके पीछे की वजह थी कुछ ही महीने पहले हुए बोफोर्स घोटाले का खुलासा। जिसे लेकर विपक्ष ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। जिसके बाद राजीव गांधी की सरकार गिर गई। 29 नवंबर 1989 को राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

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