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झंडा ऊंचा रहे हमारा…’ गीत की रचना कर अमर हो गए स्वतंत्रता सेनानी श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’

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देश आज़ादी की 77वीं वर्षगांठ मना रहा है और हमारे जांबाज़ स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को याद करने का सिलसिला भी जारी है। इसी कड़ी में आज हम बात कर रहे हैं श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ की। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दौरान क्रांतिवीरों में अपने गीतों के माध्यम से नया जोश भरने का काम किया और राष्ट्र को झंडा गीत, ‘झंडा ऊँचा रहे हमारा’ दिया। इस गीत को लिखने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी छुपी है..

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सन 1923 में फ़तेहपुर जिले में काँग्रेस का एक सम्मेलन हुआ। इस बैठक में मोतीलाल नेहरू सभापति के रूप में शामिल हुए, लेकिन दूसरे ही दिल उन्हें किसी ज़रूरी काम से बंबई जाना पड़ा। उनके स्थान पर सभापतित्व संभालने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी को अंग्रेज़ सरकार के विरोध में भाषण देने के कारण जेल जाना पड़ा।

 काँग्रेस ने उस समय तक अपने झंडे के रूप में ‘तिरंगा’ को तय कर लिया था, लेकिन उनके पास आम जन को प्रेरित कर सकने वाला कोई झंडा गीत नहीं था। तब श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जो श्यामलाल ‘पार्षद’ की देशभक्ति और काव्य-प्रतिभा दोनों से ही प्रभावित थे, ने पार्षद जी से एक झंडागीत लिखने को कहा।

अब काव्य-रचना ऐसी चीज़ तो है नहीं कि जब चाहा हो गई। तो ‘पार्षद’ परेशान, समय सीमा में गीत कैसे लिखा जाए? वह काग़़ज-कलम लेकर लिखने बैठ गए! काफ़ी सब्र और सोच के बाद, रात को नौ बजे कुछ शब्द काग़ज़ पर उतरने शुरू हुए। कुछ ही समय में एक गीत तैयार हो गया जो इस प्रकार था-

“राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति; राष्ट्रीय पताका नमो नमो।”

गीत लिख दिया था, जो अच्छा भी था लेकिन पार्षद को इसमें वो बात नहीं नज़र आई। क्योंकि उनका मानना था यह  गीत सामान्य जन-समुदाय के लिए उपयुक्त नहीं था। इसके बाद थककर वह लेट गए, पर व्याकुलता के कारण नींद नहीं आई।

जागते-सोते, करवटें बदलते रात दो बजे लगा जैसे रचना उमड़ रही है। वह उठकर लिखने बैठ गए। कलम चल पड़ी। स्वयं पार्षद के अनुसार- “गीत लिखते समय मुझे यही महसूस होता था कि भारत माता स्वयं बैठकर मुझे एक-एक शब्द लिखा रही हैं।”

इस तरह उनकी कलम से निकला ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।’ इस गीत को लेकर पार्षद अगले दिन सुबह ही विद्यार्थी जी के पास पहुंच गए। गणेश शंकर विद्यार्थी को यह बहुत पसंद आया और उन्होंने पार्षद की जमकर तारीफ़ की। इसके बाद यह गीत महात्मा गांधी के पास भेजा गया; जिन्होंने इसे छोटा करने की सलाह दी।

सन 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा सम्मलेन में अध्यक्ष के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इसे ‘झंडा गीत’ के रूप में स्वीकार किया और उनके साथ मौजूद पांच हजार से अधिक लोगों ने इसे पूरे जज़्बे के साथ गाया। श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ के बारे में अपने आभार व्यक्त करते हुए नेहरू जी ने कहा था- “भले ही ज़्यादा लोग पार्षद जी को नहीं जानते, परंतु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित होगा।”

10 अगस्त 1977 की रात को इस समाजसेवी, राष्ट्रकवि का निधन हो गया। वह तब 81 वर्ष के थे। स्वतंत्र भारत ने उन्हें सम्मान दिया और 1952 में लाल किले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘झंडा गीत’ गाया। 1972 में लाल क़िले में उनका अभिनंदन किया गया।

आइए अपने प्रतिष्ठित झंडा गीत को हम भी याद करें-

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।

सदा शक्ति बरसाने वाला, प्रेम सुधा सरसाने वाला।

वीरों को हर्षाने वाला, मातृ भूमि का तन मन सारा।।

झण्डा ऊँचा रहे हमारा …

स्वतंत्रता के भीषण रण में, रख कर जोश बढ़े क्षण-क्षण में।

काँपे शत्रु देखकर मन में, मिट जाये भय संकट सारा।।

झण्डा ऊँचा रहे हमारा …

इस झँडे के नीचे निर्भय, हो स्वराज जनता का निश्चय।

बोलो भारत माता की जय, स्वतंत्रता ही ध्येय हमारा।।

झण्डा ऊँचा रहे हमारा …

आओ प्यारे वीरों आओ, देश धर्म पर बलि-बलि जाओ।

एक साथ सब मिल कर गाओ, प्यारा भारत देश हमारा।।

झण्डा ऊँचा रहे हमारा …

शान न इसकी जाने पाये, चाहे जान भले ही जाये।

विश्व विजयी कर के दिखलाएं, तब हो ये प्रण पूर्ण हमारा।।

झण्डा ऊँचा रहे हमारा …

जय हिन्द!!

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