Ghalib’s 224th Birth Anniversary: उर्दू शायरी के ‘मिर्जा’ ग़ालिब की Shayri in Hindi

एक बैचैन शायर जिसे शराब और जुआ बाकी सांसारिकता से कहीं अधिक प्यारा था। एक शायर जिससे उसके तारीफ पुछने पर कहता, ‘पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन हैं, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या ?” एक शायर जिसकी पहुंच हिंदुस्तान के बादशाह तक थी।
इस शायर का नाम है मिर्ज़ा ग़ालिब। गालिब को सिर्फ हिंदुस्तान ने ही नही बल्कि विदेशों में भी जाना जाता है। मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। कहते हैं गालिब के दादा उज्बेकिस्तान से आए थे। ग़ालिब उर्दू और फारसी भाषाओं में शायरियां और गजल लिखा करते थे।
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ालिब बाद में आगरा से दिल्ली आ गए थे। दिल्ली आकर वे तब के शाहजहांनाबाद में बस गए। आज उसी शाहजहांनाबाद को चांदनी चौक कहते हैं। चांदनी चौक के वल्लीमरान गली कासिम जान में ग़ालिब की हवेली अब भी है। अब ग़ालिब की हवेली को संग्राहालय में बदल दिया गया है। आज भी ग़ालिब की हवेली में उनके द्वारा प्रयोग किए जाने बर्तन और उनकी रोजमर्रा की वस्तुएं रखी हैं।
कहते हैं कि ग़ालिब के रहने का तरीका रईसों जैसा था लेकिन कम आय की वजह से उनके ऊपर काफी कर्ज था। उस जमाने में ग़ालिब पर 40 हजार रुपये का कर्ज था। ग़ालिब महंगे शराब और जुए को पसंद करते थे।
“हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और”
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ालिब के किस्से
ग़ालिब और उनकी आम की पसंद के किस्से आज भी बड़े चाव से सुनाए जाते है। एक किस्सा है कि ग़ालिब अपने दोस्तों के साथ के आम खा रहे थे। उनके किसी दोस्त को आम पसंद नहीं था। तभी वहां एक गधा आता है और आम को सूंधता है और बिना खाए चला जाता है। ऐसा होता देख ग़ालिब के दोस्त ने तंज करते हुए कहा, गधे भी आम नहीं खाते। जिसपर ग़ालिब जवाब में कहते हैं, गधे हैं इसलिए आम नहीं खाते। बस ग़ालिब का इतना कहना था कि वहां बैठे सभी लोग ठहाके लगाने लगते हैं और ये किस्सा भी इतिहास में अमर हो जाता है। गालिब की मौत 15 फरवरी 1869 को हुई थी। बाद में एक उर्दू अखबार में उनकी मौत की ख़बर 17 फरवरी 1869 को छपी।
उन के देखे से आती है चेहरे पे रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
मिर्जा ग़ालिब
दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का मिला था ख़िताब
उस समय के मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर से मिर्जा ग़ालिब के काफी अच्छे सम्बन्ध थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के ख़िताब से नवाज़ा था। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि ‘हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है’ गज़ल उन्होंने बहादुर शाह ज़फर पर तंज करते हुए रचा था।
पढ़े पुरी गज़ल
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
न शो’ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न तुम से
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है