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राष्ट्रीय

नसबंदी, जेल और लोकतंत्र पर प्रहार, पढ़ें आपातकाल का वो काला अध्याय

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आजादी के महज 28 साल बाद ही देश को तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के फैसले के कारण आपातकाल के दंश से गुजरना पड़ा। 25 जून 1975 की सुबह एक फोन की घंटी ने देश में ‘आपातकाल’ की काली रात लिख दी थी। 25-26 जून की रात को आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुनाया गया। 48 साल के बाद भले ही देश के लोकतंत्र की एक गरिमामयी तस्वीर सारी दुनिया में प्रशस्त हो रही हो, लेकिन आज भी अतीत में 25 जून का दिन डेमॉक्रेसी के एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है।

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ये विचार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के संसदीय निर्वाचन के विषय मे दिए गए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के आलोक में आया था। इमरजेंसी का प्रमुख कारण 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला था, जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण अपनाने का दोषी करार देते हुए उनके लोकसभा चुनाव को निरस्त कर दिया गया एवं 6 वर्षो तक चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया गया था। अपनी सत्ता को बचा ने की चाहत में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश में पहली बार आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी थी।

25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। आपातकाल के दौरान पूरा देश कारागार में परिवर्तित हो गया था। विपक्ष के सभी नेताओं को रात में ही जगा कर नज़दीकी जेल में ज़बरन डाल दिया गया। आजादी के बाद एक बार फिर से नागरिकों की व्यक्तिगत आजादी छीन ली गयी, उनके अधिकारों का गला घोंट दिया गया। सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। कानून व संविधान की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और किसी की गिरफ्तारी के 24 घंटे के अन्दर उसे अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को खत्म कर दिया। नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढ़ाने और फिर इसमें पुन: बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया। 10 अक्टूबर, 1975 को एक क्रूर संशोधन करके नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को जुर्म बना दिया गया। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की पराकाष्ठा थी।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया को भी लोगों तक सही जानकारी नहीं पहुंचाने दिया गया। देश की सत्ता को सम्भालने वाले लोगों प्रेस को अपने हाथ की कठपुतली बना कर रखा। आपातकाल की घोषणा के साथ ही प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था।

विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया और संसद में उनकी अनुपस्थित का फ़ायदा उठाकर संविधान में बहुत सारे संशोधन कर दिए गये। न्यायपालिका के अधिकारों को सीमित कर दिया गया यहाँ तक की संसद की कार्यवाही को मीडिया में पब्लिश करने पर रोक लगा दी गयी। कांग्रेस पार्टी अपने आप में एक क़ानून बन गयी। फिल्म अभिनेता, कलाकार , गायक आदि को कॉंग्रेस में शामिल होने का दबाब बनाया गया और जिसने मना किया उसे सज़ा दी गयी।

महान गायक किशोर कुमार ने जब यूथ कॉंग्रेस की रैली में गाना गाने से मना कर दिया तो ऑल इंडिया रेडियो पर उन्हे ब्लॅकलिस्ट कर दिया गया और उनके गाने बंद कर दिए गये| देवआनंद और दिलीप कुमार जैसे कलाकारों को धमकाया गया। सैकड़ो लोगों की जेल में मौत हुई, बर्बरता और सरकारी आतंक-अराजकता चरम पर थी। लाखों लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गयी| लोगों को हर समय डर लगा रहता था की कब रात के अंधेरे में उन्हे पुलिस उठा कर ले जाए और नसबंदी कर दे इसी डर से बहुत से लोग घर छोड़कर रात को खेतों में सोने जाते थे | देश की जनता ने 21 महीनों तक अनेकों कष्ठ और यातनायें सहीं। इमरजेन्सी का काला इतिहास नागरिकों पर सरकारी ज़ुल्म और ज़्यादतियों की ऐसी अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है जो आज भी रोंगटे खडी कर देती हैं। सिर्फ़ लोकतंत्र की हत्या ही नहीं हुई बल्कि मानवता को शर्मसार करने वाले अपराधिक जुल्मों की इंतिहा हुई। आपातकाल 19 महीने बाद 21 मार्च 1977 तक रहा।

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