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प्रधानमंत्री सीरीज: अर्थशास्त्री से कैसे पीएम बन गए मनमोहन सिंह

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31 साल पहले भारत के लिए एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसने भारत की तकदीर हमेशा के लिए बदल दी। उदारीकरण के इस दौर से पहले भारत की इकोनॉमी बंद थी। यानि तब सरकार ही सब कुछ तय करती थी। लेकिन फिर भारत ने अपनी अर्थव्यस्था को खोलने का फैसला किया। 24 जुलाई 1991 उस वक्त मनमोहन सिंह ने बजट पेश किया, और आर्थिक सुधारो की घोषणाकी। मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक यानी दस साल भारत के प्रधानमंत्री रहे। लेकिन उन्हें लोग वित्त मंत्री के तौर पर ज्यादा जानते है।

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दरअसल आजादी के बाद से देश की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी। लेकिन 90 का दशक आते-आते देश एक ऐसे मुहाने पर आकर खड़ा हो गया था, जहां कुछ भी स्थिर नहीं था। साल 1988 में ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से कहा था कि भारत आर्थिक संकट की तरफ तेजी से जा रहा है जिससे बचने के लिए आप एक लोन ले लीजिए। फिर क्या हुआ? साल 1991 में भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसने भारत की तकदीर हमेशा के लिए बदल दी।

आर्थिक नीतियों और उदारीकरण का चेहरा बने मनमोहन

फिलहाल 1991 को अपना बजट भाषण देने के बाद मनमोहन सिंह नई आर्थिक नीतियों और उदारीकरण का चेहरा बन गए थे। जिस समय मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया गया वे संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। पूर्व IAS व एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) के डायरेक्टर प्रदीप.के. लाहिर की आत्मकथा ए टाइड इन द अफेयर्स ऑफ मेन में मनमोहन से जुड़ी कई बातों का जिक्र मिलता है।

लाहिरी कहते है कि इस उच्च स्तरीय नौकरशाह को मनमोहन सिंह के साथ पहली बार बतौर राजस्व सचिव काम करने का मौका मिला। फिर लाहिरी एडीबी के निदेशक हो गए, जबकि मनमोहन सिंह एडीबी में बोर्ड ऑफ द गवर्नर्स के गवर्नर थे। लाहिरी के मुताबिक मनमोहन सिंह अत्यंत सादगी पसंद हैं।

तो इस तरह प्रधानमंत्री बन गए डॉ. मनमोहन सिंह

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बतौर प्रधानमंत्री उन्हें ऐसे आरोपों का सामना करना पड़ा कि वे ऐसी सरकार के प्रधान हैं, जो घोटालों से घिरी है। यह इस वजह से था की बेहद शरीफ व्यक्ति होने की वजह से मनमोहन में उस दृढ़ता का अभाव था। लेखक के मुताबिक मनमोहन सिंह एक बहुत अच्छे वित्त मंत्री तो साबित हुए लेकिन अपेक्षाकृत एक अच्छे प्रधानमंत्री वे नहीं बन पाए।

सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव में कांग्रेस की विजय के बावजूद प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने से इंकार कर दिया था। तब यूपीए में विचार-विमर्श कर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाने पर सहमति बनाई गई। लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए चौंकाने वाला जरूर था। दरअसल इसके पिछे का कारण एक ये भी माना जाता है, कि सोनिया जी को ऐसा व्यक्ति चाहिए था, जो नख-दंत हीन हो। मतलब जो उन्हें और उनकी पार्टी को चुनौती न दे सके। इस कसौटी पर अकेले डॉ. सिंह सौ-टंच खरे उतरे हैं। 

मनमोहन ने स्वीकार किया कि शक्ति के दो केंद्र नहीं हो सकते

मनमोहन के पूर्व सलाहकार डॉ संजय बारू ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर एक किताब लिखी। 2014 में उनकी किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर : द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ चर्चा में रही। डॉ. संजय कहते है कि संयोगवश प्रधानमंत्री कहना या उनका संयोगवश प्रधानमंत्री होना अपने आप में कोई बड़ी बात नहीं है। बस फर्क इतना है कि डॉ. सिंह अंत तक ‘संयोगवश’ ही बने रहे। जिन ‘संयोगवश’ प्रधानमंत्रियों के नाम मैंने गिनाए हैं, उनमें से इंदिराजी को छोड़कर किसी को भी इतनी लंबी अवधि नहीं मिली, जितनी डॉ. सिंह को मिली है। 

संजय बारू जैसे सलाहकार-अफसरों ने उनकी प्रथम अवधि (2004-2009) के दौरान उन्हें असली प्रधानमंत्री बनने के लिए खूब उकसाया और वे परमाणु-सौदे के समय उकसे भी, लेकिन उसके बाद उन्होंने खुद स्वीकार किया कि अब शक्ति के दो केंद्र नहीं हो सकते। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो वह अध्यादेश है, जो मनमोहन-मंत्रिमंडल ने तैयार किया था और जिसे फाड़कर फेंकने का एलान राहुल गांधी ने खुले आम कर दिया था।

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