देश में 1989-90 में मंडल और कमंडल की सियासत शुरू हुई। आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का कैटेगराइजेशन हुआ और पिछड़ों की सियासी ताकत पहचानी गई। बनिया और ब्राह्मण की पार्टी कही जाने वाली भाजपा ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण सिंह को बनाया। दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल रह चुके कल्याण सिंह की सियासत की डगर पर रफ्तार बहुत तेज रही न बहुत धीमी।
अलीगढ़ जिले की अतरौली तहसील के मढ़ौली गाँव में पाँच जनवरी 1935 को एक साधारण किसान परिवार में जन्मे कल्याण बचपन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अध्यापक की नौकरी की और राजनीति भी जारी रखी।
1951 में ही जनसंघ की शुरुआत हो गई और 1952 के चुनाव में पार्टी को 3 सीटें मिलीं। इसके बाद 1962 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ को 14 सीटें मिलीं। लेकिन अगर उत्त प्रदेश में मजबूती चाहिए तो जाहिर था कि जनसंघ के पास पिछड़े वर्ग के कुछ अच्छे लोग हो। उस समय तेज-तर्रार कल्याण सिंह का नाम सामने आया।
अलीगढ़ से गोरखपुर तक लोधी जाति की अच्छी-खासी आबादी थी। माना जाता था कि यादव और कुर्मी के बाद लोधी ही आते है। ऐसे में कल्याण सिंह को अपनी पर्सनिलिटी के साथ लोधी होने का भी फायदा मिल गया। इसके बाद उनको कहा गया कि सक्रियता बढ़ाएं और पार्टी को जिताएं। जिसके बाद वह काम पर लग गए। 1962 में पहली बार उन्होंने अतरौली सीट से चुनाव लड़ा। इस चुनाव में वह हार गए।
इसके बाद 1967 में कल्याण सिंह फिर चुनाव मैदान में उतरे। इस बार वो जीत गए और बाबू सिंह को जितने वोट मिले थे, उससे भी करीब 5 हजार वोट ज़्यादा कल्याण सिंह को मिले। कांग्रेस प्रत्याशी को हराना उस समय बड़ी बात थी।
इसके बाद 1969, 1974 और 1977 के चुनाव में भी उन्होंने अतरौली में अपना परचम लहराया। 4 बार लगातार विधायक बने। पहली 3 बार जनसंघ के टिकट पर, चौथी बार जनता पार्टी के टिकट पर। हालांकि, 1980 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह की जीत का सिलसिला थम गया। कांग्रेस के अनवर खान के सामने उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
लेकिन उसी साल 6 अप्रैल 1980 को भाजपा का गठन हुआ तो कल्याण सिंह को पार्टी का प्रदेश महामंत्री बना दिया गया। उन्हें प्रदेश की कमान सौंप दी गई।
साल 1991 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कल्याण सिंह को पिछड़ों का चेहरा बनाकर राजनीति की प्रयोगशाला में उतार दिया। वह भाजपा के यूपी में पहले सीएम भी थे।‘हिंदू हृदय सम्राट’ कहलाने वाले कल्याण की गिनती अयोध्या में बन रहे राम मंदिर की नींव प्रशस्त करने वालों में होती है। करीब एक साल तक बाबूजी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। उसी दौरान बाबरी मस्जिद के ढांचा टूटने पर उन्होंने कुर्सी को छोड़ दिया। लेकिन कल्याण ताउम्र कारसेवकों पर गोली नहीं चलवाने के अपने फैसले को सही मानते हुए उस पर अडिग रहे।
कल्याण सिंह की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अनेक आयाम छुए। 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने अलीगढ़ के अतरौली और एटा की कासगंज सीट से विधायक निर्वाचित हुये। इन चुनावों में भाजपा कल्याण के नेतृत्व में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। लेकिन सपा-बसपा ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में गठबन्धन सरकार बनाई और उत्तर प्रदेश विधानसभा में कल्याण सिंह विपक्ष के नेता बने। वो उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहने के साथ राजस्थान के राज्यपाल रहे।
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