AMRITA PRITAM BIRTHDAY: साहिर से प्रेम, हिंदुस्तान का बँटवारा, जानिए अमृता प्रीतम की कहानी
एक लव ट्राएंगल, जिसमें प्रेम के लिए हर किरदार तरसता रहा। बात आजादी से पहले की है जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बँटवारा नही हुआ था। साल 1944 के दौर में लाहौर के प्रीत नगर के एक मुशायरे में एक लड़का-लड़की मिलते हैं। इस मिलन का हासिल ये हुआ कि लड़की लड़के से प्यार कर बैठी और आधुनिक भारत के प्रेम की उपमा बन गईं। इस लड़की का नाम था अमृता प्रीतम और लड़का साहिर लुधयानवी।
आज अमृता प्रीतम की 102वीं जयंती है।
लोग आज भी अमृता के कविताओं को उसी अंदाज में पढ़ते हैं जिस अंदाज में इसे लिखा गया था।
अमृता प्रीतम ने साहिर से अपने प्रेम को अपने आत्मकथा में बताया है। अमृता लिखती है, ‘वो (यानि साहिर) चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता। आधी पीने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता। जब वो जाता तो कमरे में उसकी पी हुई सिगरेटों की महक बची रहती। मैं उन सिगरेट के बटों को संभाल कर रखतीं और अकेले में उन बटों को दोबारा सुलगाती। जब मैं उन्हें अपनी उंगलियों में पकड़ती तो मुझे लगता कि मैं साहिर के हाथों को छू रही हूँ। इस तरह से मुझे सिगरेट पीने की लत लगी’।
अमृता साहिर की दास्तां
देश के बंटवारे के बाद अमृता भारत की हो गयी और साहिर पाकिस्तान के हो गए। बाद में साहिर भारत भी आए लेकिन तब तक वे बड़े गीतकार बन चुके थे और कई दूसरी महिलाओं के साथ उनका नाम आने लग गया था जिसके बाद अमृता और साहिर में दूरियां आ गईं, फिर साहिर अमृता के दिल में रहे।
साहिर से नजदीकीयों के कारण अमृता के पति से उनके मतभेद शुरु हो जिसके बाद वो दिल्ली में ही भाड़े के मकान में रहने लगी। अमृता 1958 में इमरोज़ से मिली और उनके बीच नजदीकियां बढ़ गईं।
लेकिन साहिर अब भी अमृता प्रीतम के दिल के दिल में थे।
बीबीसी को दिए एक इंटरव्यु में इमरोज़ कहते हैं, ‘अमृता की उंगलियां हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं। चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो। उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर उंगलियों से साहिर का नाम लिख दिया। लेकिन फ़र्क क्या पड़ता है। वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं। मैं भी उन्हें चाहता हूं’
अमृता के ज़िंदगी के अध्यन से पता चलता है कि उन्होंने साहिर से प्रेम में अपनी ज़िंदगी को न्योछावर कर दिया और प्रेम की अथाह सागर को दिल में समेट लिया।
अमृता प्रीतम की सबसे चर्चित कविता
मैं तुझे फिर मिलूँगी…
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरुँगी
या तेरे कैनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलती रहूँगी
या रंगों की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा