वर्तमान भारत में महिलाओं के हित में ढेरों योजनाएं बनाई जा रहीं है। ऑटो से लेकर पिक्चर हॉल की स्क्रीन तक बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के स्लोगन लिखे दिख जाते हैं। हर जगह महिलाओं के समान अधिकारों और हक की बातें होती है। औरतों के लिए यह योजनाएं आज ही नहीं बल्कि कई सालों से बनती चली आ रही है। इतने सालों से एक ही नारा, एक ही बात कहे जाने के बावजूद क्या समाज पर इसका कोई असर हुआ है? ऊपर से देखें तो लगता है की हालात बदले हैं पर अंदर की बात किसी और ही तरफ ईशारा करती है। औरतों के हित में ही आज हाईकोर्ट ने एक और फैसला लिया है। हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार महिलाओं को पढ़ने या बच्चा पैदा करने मे से किसी एक को चुनने के लिए बाध्य नही किया जा सकता है। जस्टिस पुरुषेंद्र कुमार कौरव ने एक एमएड की छात्रा को मातृत्व अवकाश देनें और परीक्षा मंप बैठने की अनुमती दी है। उन्होंने कहा कि संविधान ने एक समतावादी समाज की परिकल्पना की थी। जिसमें नागरिक अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर सके। समाज के साथ-साथ राज्य भी इसकी अनुमती देता है। कोर्ट ने आगे कहा कि संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक किसी को शिक्षा के अधिकार और प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार के बीच किसी एक का चयन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
चौधरी चरण सिंह विश्व विघालय मे दिसंबर, 2021 को एक छात्रा ने एमएड के कोर्स के लिए दखिला लिया था। उन्होंने मातृत्व अवकाश के लिए यूनिवर्सिटी डीन और कुलपती से आवेदन किया था। जिसे 28 फरवरी को खारिज कर दिया गया। आवेदन खारिज करने के कारण छात्रा की उपस्थिति मानक को बताया गया। जिसके बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट से अपील की।
हाईकोर्ट ने छात्रा की बात पर गौर करते हुए यूनिवर्सिटी प्रबंधक का फैसला रद्द कर दिया। याचिकाकर्ता को 59 दिनों के मातृत्व अवकाश पर पुन: विचार करने को कहा गया। निर्देश दिया कि अगर इसके बाद कक्षा में आवश्यक 80 प्रतिशत उपस्थिति का मानक पूरा होता है तो उसे परीक्षा में बैठने की अनुमति दी जाए। अदालत ने यह भी कहा, विभिन्न फैसलों में माना गया है कि कार्यस्थल में मातृत्व अवकाश का लाभ लेना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान के साथ जीने के अधिकार का एक अभिन्न पहलू है।
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