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लालकृष्ण आडवाणी की ‘ये इच्छा’ रह गई अधूरी?

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भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि जनसंघ और भाजपा के इतिहास में लालकृष्ण आडवाणी ‘लिविंग लीजेंड’ माने जाते हैं। आडवाणी की रायसीना हिल की यात्रा अधूरी रह गई यानी आडवाणी राष्ट्रपति नहीं बन पाऐ। पीएम इन वेटिंग के बाद प्रेसिडेंट इन वेटिंग, का भी सपना अधूरा रह गया।

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राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है जनसंघ से लेकर बीजेपी तक के सफर में आडवाणी से ज्यादा योगदान किसी का नहीं है। बीजेपी की दूसरी पीढ़ी यानी जो आज सरकार में बैठे हैं उसमें से 90 फीसद से ज्यादा लोग आडवाणी की देन माने जाते हैं। आडवाणी ने जब रथ यात्रा शुरू की थी तो वो हिंदुत्व और भाजपा दोनों को प्रमोट कर रहे थे।

लालकृष्ण आडवाणी यानी कट्टर हिंदुत्व की राजनीति का चेहरा

लाल कृष्ण आडवाणी राम मंदिर आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे में से एक था। मंदिर निर्माण में उनका योगदान देखें तो बीजेपी अध्यक्ष के रूप में आडवाणी ने 1990 में गुजरात के सोमनाथ से रथयात्रा शुरू की थी। उनकी रथयात्रा ने देश भर में लोकप्रियता हासिल की।

अपने भाषणों में वे इस बात पर जोर देते रहे कि मंदिर ठीक उसी जगह बनाया जाएगा जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी। जिसकी वजह से 1984 में महज दो सीट हासिल करने वाली पार्टी ने 1996 में बड़ी छलांग लगाई। आडवाणी के नेतृत्व में आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति में आम चुनाव में पार्टी को 161 सीटों पर जीत मिली।

आडवाणी लगभग एक दशक से पार्टी के अध्यक्ष थे। उन्होंने राम मंदिर आंदोलन चला कर पार्टी को एक नई दिशा और तेवर प्रदान किए थे। पार्टी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी। 22 मई, 1996 को आउटलुक पत्रिका में छपे लेख ‘अ टेल ऑफ टू चीफ्स में’ इस बात का जिक्र किया गया है। कि कैसे आडवाणी को पिछे कर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पद के उमीदवार बने।

बताया जाता है जब 1996 के चुनाव से कुछ महीने पहले मुंबई के शिवाजी पार्क में भारतीय जनता पार्टी ने एक बड़ी रैली का आयोजन किया। उस जनसभा में जब आडवाणी ने पार्टी के भावी प्रधानमंत्री उम्मीदवार के लिए वाजपेयी के नाम की घोषणा की तो वहां मौजूद लोग अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पाए। उस वक्त आडवाणी जी पीएम बन सकते थे। लेकिन आडवाणी ने कहा कि बीजेपी में वाजपेयी से बड़ा नेता कोई नहीं हैं।

आडवाणी ने खुद अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री माई लाइफ़’ में लिखा है, ” की मैंने जो किया वो कोई बलिदान नहीं था। वो एक तार्किक आकलन का नतीजा था कि क्या सही है और पार्टी और देश के हित में क्या है? लेकिन बीजेपी समेत ज्यादातर राजनीतिक दलों में बहुत लोग आज भी मानते हैं कि आडवाणी से बेहतर कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता।

अटल और आडवाणी की जुगलबंदी

अटल और आडवाणी एक सिक्के के दो पहलू की तरह रहे। जहां अटल की छवि एक उदारवादी नेता के तौर पर रही, वहीं आडवाणी आक्रमक नेता के दौर पर जाना जाता था। 2002 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वह उप प्रधानमंत्री रहे थे।

कहते है अटल के साथ उनकी जुगलबंदी देखने लायक थी। वाजपेयी-आडवाणी संबंधों पर बहुचर्चित किताब ‘जुगलबंदी-द बीजेपी बिफोर मोदी’ है। जिसके लेखक विनय सीतापति हैं। वो बताते है कि आडवाणी के इस फैसले के पीछे कोई वजह रही होगी। हो सकता होगा शायद बीजेपी के सहयोगी दलों को आडवाणी की तुलना में वाजपेयी ज्यादा पसंदीदा नेता रहे होंगे।

विनय सीतापति ने बताया उस समय तृणमूल कांग्रेस के नेता दिनेश त्रिवेदी ने उनसे कहा था कि आडवाणी बहुत चतुर नेता हैं। अगर बीजेपी ने आडवाणी को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाया होता तो हमने बीजेपी का समर्थन नहीं किया होता। ऐसे में आडवाणी बीजेपी को अधिक वोट दिलवा पाते लेकिन उन्हें सरकार बनाने के लिए सहयोगी दल नहीं मिलते।

अयोध्या पर वाजपेयी और आडवाणी के नहीं थे एक विचार

वाजपेयी और आडवाणी के संबंधों के बीच पहली दरार अयोध्या आंदोलन के दौरान दिखाई पड़ी। लालकृष्ण आडवाणी ने खुद अपनी किताब “माई कंट्री माई लाइफ” में लिखा कि जिन दो बड़े मुद्दों पर वाजपेयी और मुझमें एक राय नहीं थी, उसमें पहला अयोध्या का मुद्दा था, जिस पर आखिर में वाजपेयी ने पार्टी की राय को माना और दूसरा मामला था-गुजरात दंगों पर नरेन्द्र मोदी के इस्तीफे की मांग।

आडवाणी ने लिखा कि गोधरा में बड़ी तादाद में कारसेवकों के मारे जाने के बाद गुजरात में साम्प्रदायिक दंगें हो गए थे। इसके बाद विपक्षी पार्टियों ने मोदी के इस्तीफे के लिए दबाव बना रहे थे। एनडीए में भी कुछ पार्टियां और बीजेपी में भी कुछ लोग मान रहे थे कि मोदी को इस्तीफा देने के लिए कहा जाना चाहिए। लेकिन मेरी (आडवाणी ) इस राय के बिल्कुल खिलाफ थे।

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