बिहार की सियासत में जब भी बाहुबली सियासतदानों का जिक्र होगा, तो उसमें राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव का नाम ऊपर लिया जाता है। उन्हें बिहार के ‘रॉबिन हुड’ के नाम से भी जाना जाता है। पप्पू की खास पहचान तब बनी जब वह 1990 में निर्दलीय विधायक बनकर बिहार विधानसभा में पहुंचे। हालांकि वो मुख्यमंत्री बनने के लिए चुनाव मैदान में उतरा था।
उनके राजनीतिक सफर और अतीत को देखते है तो जहन में उनकी छवी एक बाहुबली नेता के रूप में उभरती है। जिसके लिए उन्होंने बिहार की जेल से तिहाड़ तक की यात्रा की है। पप्पू यादव ने 17 साल से अधिक समय जेल में बिताया।
पप्पू यादव का जन्म 24 दिसम्बर 1967 को बिहार के मधेपुरा जिले के खुर्दा करवेली गांव में एक जमींदार परिवार में हआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा सुपौल के आनंद मार्ग स्कूल से पूरी की है। इसके बाद उन्होंने मधेपुरा के बी एन मंडल विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक किया। इसके अलावा इग्नू से डिजास्टर मैनेजमेंट और हयूमन राइट्स में डिप्लोमा किया।
पप्पू यादव ने राजनीति में कदम रखने से पहले ही बाहुबली के रूप में अपनी छवि बना ली थी। उन्होंने साल 1990 में सियासत में कदम रखा और वह सिंहेसरस्थान विधान सभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में पहली बार विधायक बने और फिर पलटकर नहीं देखा।
पहली बार विधायक बनने वाले पप्पू यादव ने बहुत कम वक्त में कोसी बेल्ट के कई जिलों में अपना प्रभाव बढ़ा लिया। उन्होंने मधेपुरा नहीं बल्कि पूर्णिया, सहरसा, सुपौल, कटिहार जिलों में अपने समर्थक का मजबूत नेटवर्क खड़ा कर दिया।
पप्पू यादव ने राजनीति में कदम रखने से पहले ही बाहुबली के रूप में अपनी छवि बना ली थी। साल 1990 में लालू यादव के मुख्यमंत्री पद पर विराजे वहीं दूसरी ओर जुर्म की दुनिया के कई नामों के सियासी उदय होने का साक्षी भी बन रहा था। लालू यादव के साथ ही बिहार की राजनीति में बाहुबली पप्पू यादव का भी सियासी उदय होता है।
लालू के राजनीतिक जीवन के उत्थान पर, जिस व्यक्ति ने उसके मिशन को सफल होने के लिए सबसे अधिक मदद की वो थे पप्पू यादव। दरअसल इसके पिछे की एक वजह थी कि लालू और पप्पू यादव दोनों दलित-पिछड़ों पर केंद्रित राजनीति कर रहे थे। यहीं कारण है कि पप्पू खुद को लालू का उत्तराधिकारी मानते थे। यह अलग बाद है कि पप्पू की मंशा पूरी नहीं हुई।
बिहार में अस्सी के दशक में जिस जातीय टकराव की शुरूआत होती वह नब्बे के दशक आते-आते अपने चरम पर पहुंच जाती है। जाति के राजनीति के लिए पहचाना जाने वाला बिहार अब जातीय संघर्ष की आग में जलने लगा था। भूमिहारों और यादवों की जंग की धमक बिहार ही नहीं पूरे देश में सुनाई देने लगी थी। बिहार की पावन धरती पर एक के बाद एक जातीय वर्चस्व की लड़ाई में जमकर खून खराबा हुआ। जातीय संघर्ष की इस जंग में भूमीहारों का नेतृत्व रणवीर सेना कर रहा थी। तो उसको चुनौती देने का काम पिछड़ों के नेता पप्पू यादव कर रहे थे जिन्होंने यादवों की अपनी अलग सेना का ही निर्माण कर डाला था।
कोसी का बेल्ट जहां हर बारिश में कोसी नदी अपने रौद्र रूप में तबाही मचाती थी। वह इलाका अब पप्पू और रणवीर सेना के टकराव में गोलियों से अक्सर गूंजता था। कहा जाता है कि भूमिहारों और यादवों का जंग बिहार में गृहयुद्ध का रूप ले चुकी थी। और उसको काबू करने के लिए उस समय के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को बीएसएफ बुलानी पड़ी थी।
जातीय संघर्ष के सहारे अपनी सियासी रोटियां सेंकने वाले पप्पू यादव लगातार राजनीति की सीढ़ियां चढ़ने लगे। विधायक बनने के एक साल बाद ही 1991 में पूर्णिया लोकसभा सीट से बतौर निर्दलीय चुनावी मैदान में उतरे और चुनाव जीतकर संसद भी पहुंच गए। इसके बाद 1996 के लोकसभा चुनाव में भी पप्पू यादव पूर्णिया से फिर रिकॉर्ड तीन लाख से अधिक वोटों से जीत दर्ज कर संसद पहुंचे।
पांच बार सांसद रहे पप्पू यादव उस समय चर्चा में आए जब 14 जून 1998 में माकपा विधायक अजीत सरकार की हत्या के मामले में उनका नाम आया। 24 मई 1999 को उनको गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई की विशेष अदालत ने पप्पू यादव, राजन तिवारी और अनिल यादव को 2008 के हत्याकांड में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
पप्पू ने अपनी जमानत का जश्न मनाने के लिए एक बार जेल के कैदियों के लिए भव्य पार्टी आयोजित की थी। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट से उन्हें तीन बार जमानत मिली, लेकिन उनकी जेल की गतिविधियां सार्वजनिक हो जाने के बाद उन्हें दिल्ली की तिहाड़ जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।
पप्पू यादव के लगातार 12 सालों तक जेल में रहने के बाद पटना उच्च न्यायालय ने सरकार के मामले में साल 2013 में बरी कर दिया। जेल में रहने के दौरान उन्होंने अपनी छवि को बदलने की कोशिश की और उस समय उन्होंने ‘द्रोहकाल का पथिक’ नाम से एक किताब लिखी जिसे वे अपनी जीवनी कहते हैं।
चुनाव में पप्पू यादव ने राजद के टिकट से चुनाव लड़े। मोदी लहर के बावजूद मधेपुरा के वर्तमान सांसद शरद यादव को 50 हजार से ज्यादा वोटो से हराकर 5वीं बार लोकसभा पहुंचे। लेकिन इस चुनाव के एक साल बाद ही पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते उन्हें राजद से निकाल दिया गया।
राजद से बाहर होने के बाद 2015 में उन्होंने अपनी खुद की पार्टी जन अधिकार पार्टी बनाई। 2019 लोकसभा चुनाव में खुद के पार्टी के टिकट पर मधेपुरा से चुनाव लड़े लेकिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद 2020 विधानसभा चुनाव में पप्पू यादव की पार्टी 154 सीट पर चुनाव लड़ा लेकिन पप्पू यादव समेत उनके सभी प्रत्याशी को भारी हार का सामना करना पड़ा।
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