किसी समय शांत और सुकून देने वाला पर्यटन स्थल अफगानिस्तान, कैसे हुआ अशांत, जाने पूरी कहानी

Afghanistan
काबुल: अफगानिस्तान में तालिबानी आतंक अपने चरम पर है। जिसकी भयावह तस्वीरें हम रोज अख़बारों में देख रहे हैं। क्या आप जानते हैं कि किसी समय में ये बहुत शांत और सुकून देने वाला, एक टूरिस्ट प्लेस हुआ करता था। तो इस खूबसूरत देश की ये स्थिति आख़िर हुई कैसे? इसे जानने के लिए हमें समय में पीछे लौटना पड़ेगा। तो चलिये बताते हैं आपको, अफगानिस्तान का इतिहास…..
अफगानिस्तान का इतिहास
बहुत से सुपर पावर देश, अफगानिस्तान में आक्रमण करने आए, लेकिन उनके लीडर्स को या तो मार दिया गया या फिर बेइज़्ज़त होकर उल्टे पांव वापस लौटना पड़ा। यही कारण है कि इसे ‘ग्रेवयार्ड ऑफ अम्पायर’ (GRAVEYARD OF UMPIRES) के नाम से भी जाना जाता है।

शुरूआत में अफगानिस्तान के बारे पश्चिमी देश नहीं जानते थे। मूल रूप से अफगानिस्तान दुनिया की नज़र में तब आया, जब एक स्कॉटिश यात्री Alexander Burnes वहां गये और वहां से सुरक्षित वापस लौट आए। लोगों ने उनकी वापसी को एक बहादुरी भरे काम की तरह देखा और उन्हें हीरो बना दिया। वहां से लौटने के बाद उन्होंने अफगानिस्तान पर एक किताब, ‘Travels Into Bokhara’ भी लिखी, जो बेस्ट सेलर साबित हुई।
1838 में जब अफगानिस्तान के राजा, Emir Dost Mohammad थे। उसी समय ब्रिटिशर्स ने जंग छेड़ दी और दोस्त मुहम्मद को हरा कर उसे गद्दी से हटा दिया। उन्होंने उसकी जगह अपने एक आदमी ‘शाह शूजाह’ को बैठा दिया। उस वक्त अफगानिस्तान में कोई सैन्य बल नहीं था। बल्कि देश में हजारो छोटे-छोटे गांव थे।
हर गांव का अपना एक मुखिया था। जिसकी बात उस गांव के सभी लोग मानते थे। वो मुखिया अपने गांव के लड़कों को एमिर दोस्त की तरफ से लड़ाई के लिए ले जाता था और उसके बदले में एमिर से मिले पैसों का कुछ हिस्सा उन लड़कों को दे देता था। एमिर शाह सूजा के शासन में ये पैसा काफी कम हो गया। इसके विरोध में सभी गांवों के मुखिया एक हो गये और अकबर खान के नेतृत्व में शाह-शूजा के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी। ये जंग तीन साल तक चली।
एंग्लो अफगान वार
ब्रिटिशर्स के पास आधुनिक हथियार थे। लेकिन उसके बावजूद ब्रिटिशर्स को हार का सामना करना पड़ा। शाह सूजा का मर्डर कर दिया गया और दोस्त मुहम्मद को वापस कुर्सी पर बैठा दिया गया। इस लड़ाई को ’फ़र्स्ट एंग्लो अफगान वार’ का नाम दिया गया। इसके बाद 1878 में ब्रिटिशर्स ने दोबारा अफगान पर अटैक किया, जिसे ‘सेकेंड एंग्लो अफगान वार’ कहा गया। लेकिन इस बार ब्रिटिशर्स जंग जीत गये। फिर भी उन्होंने अफगानिस्तान के कुछ स्थानों पर ही कब्ज़ा किया। क्योंकि उनका अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने का कोई इरादा नहीं था।
ब्रिटिशर्स ने अफगानिस्तान के कई क्षेत्रों पर उनका शासन रहने दिया। क्योंकि वो अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्र जिन पर रशियन अम्पायर का प्रभाव था, केवल उन्हें अपनी पावर दिखाना चाहते थे। साथ ही मैत्री संबध भी बना कर रखना चाहते थे।

डूरंड लाइन बार्डर
1893 में अफगानिस्तान और ब्रिटिश इंडिया के बीच एक इंटरनेशनल बॉर्डर बनाया गया, जिसे ‘डूरंड लाइन’ के नाम से जाना जाता है।
1907 में ब्रिटिश और रशियन अम्पायर के बीच एक एग्रीमेंट हुआ। रशिया ने वादा किया कि वो अफगानिस्तान से दूर रहेगा।
1918 में रशिया में कम्युनिस्ट रेवुल्युशन हुई और लेनिन का राज आया।

वार ऑफ इंडिपेंडेंस’
1919 में ‘तीसरा एंग्लो अफगान’ वार हुआ, जिसे ‘वार ऑफ इंडिपेंडेंस’ के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि इस लड़ाई के बाद अफगानिस्तान को पूरी आजादी मिल गई। इस लड़ाई के समय अफगानिस्तान के शासक ‘अमानुल्ला खाँ’ थे। जो बहुत ही उदारवादी और प्रगतिशील व्यक्ति थे। उन्होंने अफगानिस्तान में काफी सुधार किए।
1926 में वो एक राजा के तौर पर सामने आए, और अफगानिस्तान, ‘किंगडम ऑफ अफगानिस्तान’ बन गया।
कुप्रथाओं का अंत
अमानुल्ला खाँ ने सोरोया नाम की एक लड़की जो उनकी प्रेमिका थी, से एकल विवाह करके अफगानिस्तान की बहु-विवाह प्रथा को तोड़ा और फिर दोनो पति-पत्नी ने मिलकर औरतों के उत्थान के लिए बहुत सी योजनाएं बनाईं।
उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खुलवाए, महिलाओं को लिए समान अधिकार की बात की, तलाक का अधिकार दिलवाया, पूरे शरीर को ढ़क कर रखने वाले कपड़े पहनने की प्रथा के ख़िलाफ आवाज़ उठाई। यहां तक कि सोराया ने एक जगह भाषण देते समय अपना हिजाब, यह कहते हुए फाड़ दिया, कि इस्लाम में कहीं नहीं लिखा कि औरतों को अपना पूरा शरीर ढ़क कर रखना चाहिए। जिससे धर्म के ठेकेदारों ने 1923 और 1924 में राजा के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। लेकिन ये विद्रोह दोनो ने बार दबा दिया गया।
1929 में विरोध सफल हुआ और राजा-रानी को ब्रिटिश इंडिया भागना पड़ा। बॉम्बे में इनकी एक बेटी हुई, जिसका नाम इन्होंने ‘इंडिया’ रखा। उसके बाद ये लोग रोम में रहने चले गये। आज इंडिया 92 साल की हैं और वो अभी भी रोम में ही रहती हैं।
1933 में ‘जाहिर शाह’ गद्दी पर बैठे और उन्होंने 40 साल तक शासन किया। पूरे शासन के दौरान उन्होंने देश का काफी विकास किया। विदेशों से भी संबंध अच्छे किये।
1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद ‘डूरंड लाइन’ को परमानेंट बार्डर बना दिया गया। अफगानिस्तान इससे खुश नहीं था, क्योंकि उसे पाकिस्तान के कई और क्षेत्रों को हथियाना था। इसका कारण यह था, कि अफगानिस्तान में पश्तून (पठान) समुदाय के 38% लोग रहते थे, और पाकिस्तान के खाइबर ‘पख़तुनख्वा’ में भी काफी मात्रा में पश्तून रहते हैं। इसीलिए अफगानिस्तान ने पाकिस्तान में अलगाववादियों का समर्थन किया।
और ये सब जाहिर शाह के प्रधानमंत्री, दाउद खान गुप्त रूप से करा रहे थे। जिससे पाकिस्तान ने अफगानिस्तान का बार्डर बंद कर दिया। और इसकी वजह से दोनों देशों में व्यापार बंद हो गया। 1963 में ज़ाहिर शाह ने दाउद खान से इस्तीफा ले लिया।
पार्लियामेंट्री इलेक्शन की शुरूआत
1964 में ये तय हुआ, कि अब प्रधानमंत्री की नियुक्ति के लिए पार्लियामेंट्री इलेक्शन होंगे।
1965 में इलेक्शन हुए, जिसमें औरतों ने भी वोट दिया। इस समय तक दो विचारधाराएं सामने आ चुकी थीं-
- कम्युनिस्ट्स की PDPA पार्टी और
- दूसरी इस्लामिस्ट की पार्टी।
1973 में ‘जाहिर शाह’ देश से बाहर गये हुए थे, तभी दाउद खान ने आर्मी, कम्युनिस्ट और लेफ्टिस्ट दोस्तों का सपोर्ट लेकर तख्तापलट कर दिया। जब आर्मी का पूरे देश पर कंट्रोल हो गया तो दाउद ने खुद को राजा घोषित करने के बजाय प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। और अफगानिस्तान को एक लोकतांत्रिक देश बना दिया। जो सिर्फ देखने में ही लोकतांत्रिक था। असल में वो एक तानाशाही शासन था।
‘जाहिर शाह’ को जब इसके बारे में पता चला तो वो इटली में शिफ्ट हो गये। दाउद ने तानाशाह होने के बावज़ूद काफी अच्छे काम किए। अफगानिस्तान एक शांत और सुकून देने वाला टूरिस्ट प्लेस बन गया।

जवाहर लाल नेहरू का नॉन अलाइन मूवमेंट
इसके बाद कोल्ड वार आया। पूरा विश्व एक काल्पनिक दीवार की रेखा से बंट गया था, जिसे ‘आयरन कर्टन’ भी कहा जाता है। इसकी एक तरफ के अमेरिका के प्रभुत्व वाले देश थे, और दूसरी तरफ सोवियत यूनियन के प्रभुत्व वाले देश थे। इसके अलावा एक तीसरा वर्ग भी था, ‘नॉन अलाइन मूवमेंट’, जिसे भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लाये थे। इसमें वो देश थे, जो स्वतंत्र रहना चाहते थे। भारत और अफगानिस्तान भी इसी वर्ग मे आते थे।
इसके बाद एक ऐसा वक्त भी आया, जब दाउद खान ने ‘नेशनल रेवोल्युशन’ पार्टी बनाई। जिसकी तीन मुख्य विशेषताएं थीं- सोशलिज़्म, नेशनलिज़्म और इस्लाम।
इन्होंने इस्लामिस्ट को तो खुश करने की कोशिश की, लेकिन बाकी दोनो लोग इन्हें खतरा लगने लगे, जिसकी वजह से दाउद ने लोगों को मरवाना शुरू कर दिया।

कम्युनिस्ट सरकार का आगमन, SAUR REVOLUTION
अप्रैल 1978 में एक कम्युनिस्ट लीडर की हत्या कर दी गई, जो दाउद का काल बन गया। लोगों ने उनके ख़िलाफ विद्रोह कर दिया और अफगानिस्तान में तख्तापलट हो गया। ये तख्तापलट ‘Saur Revolution’ कहा गया। इसमें दाउद की उनके परिवार समेत हत्या कर दी गई। इसके बाद ‘नूर मुहम्मद ताराकी’ की नई कम्युनिस्ट सरकार आई।
नूर मुहम्मद ने किसानों को ज़मीन बांटी, स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पहला टीवी चैनल लांच किया। शादी के लिए लड़कियों की बिक्री बंद कराई। साथ ही मौलवियों की ताकत को कम कर दिया। इससे इस्लामिस्ट नाराज हो गये और उन्होंने विरोध कर दिया। उन्होंने कम्युनिस्ट्स पर हमले किए और 1979 में नूर मुहम्मद का भी कत्ल दिया।
कम्युनिस्ट्स पर हमला होने से सोवियत यूनियन को अफगानिस्तान पर आक्रमण करने का बहाना मिल गया और वो कम्युनिस्ट को प्रोटेक्ट करने के लिए अफगानिस्तान पहुँच गये। उन्होंने इस्लामिस्ट और मुजाहिद्दीन के खिलाफ जंग छेड़ दी। जब अमेरिका ने देखा कि अफगानिस्तान पर सोवियत यूनियन की नज़र है, तो वो इस्लामिस्ट और मुजाहिद्दीन को आर्थिक समर्थन देने लगा।

ईरानियन रिलवोल्यूशन
1979 में अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट्स आपस में लड़ने लगे, कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट की लड़ाई तो पहले से हो ही रही थी। उसी दौरान अफगानिस्तान के पड़ोसी देश ईरान में ‘ईरानियन रिलवोल्यूशन’ हुई। ईरान की लड़ाई दो वर्गों में हुई, एक वर्ग में इस्लामिस्ट और दूसरे वर्ग में लेफ्टिस्ट और कम्युनिस्ट थे। हालांकि ईरान के राजा आधुनिकीकरण और प्रगतिवादी विचारधारा के समर्थक थे, लेकिन सत्ता के लालच में विरोधी पार्टियों की आवाज को दबाने की कोशिश करने लगे। इस बात उनका जमकर विरोध हुआ और इस्लामिस्ट ने कब्ज़ा कर लिया।
ईरान की स्थितियाँ देखकर अफगानिस्तान के उस वक्त के प्रेसीडेंट, हफिज उल्ला आमिन, जो कि एक कम्युनिस्ट लीडर थे, को डर लगने लगा कि कही यहाँ भी इस्लामिस्ट कब्ज़ा न कर ले, इसलिए इस्लामिस्ट्स को खुश करने के लिए उन्होंने मस्जिद बनवानी शुरू कर दी, भाषण में अल्लाह का नाम लेने लगे, कुरान बंटवायी। इतनी कोशिशों के बाद भी जनता उन्हें पसंद नहीं कर सकी।

दिसम्बर 1979 में इस्लामिस्ट अफगानिस्तान पर कब़्जा करता, इससे पहले सोवियत यूनियन ने आक्रमण कर दिया और हाफिज़ को मरवा दिया। इस आक्रमण के दो कारण थे-
- पहला वहाँ कम्युनिज्म विचारधारा कमजोर हो रही थी, हाफिज की हरकतों से कम्युनिज्म बदनाम हो रही थी।
- उसे लगा कि यदि अफगानिस्तान सोवियत यूनियन के पाले में आ गया तो वो कोल्ड वार में यूएसए के मुकाबले और ज़्यादा ताकतवर हो जाएगा।
मुजाहिद्दीन को फंडिग करने वाले देश
हाफिज के बाद बाबराक करमाल को गद्दी पर बैठे। इन्होंने Free Election, Freedom Of Speech, Freedom of Religion, Right to Protest, के अधिकार दिए। साथ ही देश को एक नया संविधान देने का भी वादा किया। लेकिन अफगानिस्तान को ढ़र्रे पर आता देख यूएसए को अच्छा नहीं लगा। लेकिन अफगानिस्तान पर सोवियत का प्रभुत्व था, इसलिए वो कुछ कर भी नहीं सकता था।
कोल्ड वार में अमेरिका खुद को कमजोर महसूस कर रहा था, इसलिए उसने अफगानिस्तान में मुजाहिद्दीन को सपोर्ट और फंडिंग करना शुरू कर दिया। उसे पाकिस्तान और सऊदी अरबिया पहले से ही सपोर्ट कर रहे थे। अमेरिका की CIA, पाकिस्तान की ISI, ब्रिटिश की सीक्रेट एजेंसी MI6 भी इस्लामिस्ट को सपोर्ट करने लगे।

Afghan Mujahideen fighters
कौन थे मुजाहिद?
ये पहले एक गुरिल्ला फाइटर हुआ करते थे, जो पहाड़ियों मे छिपकर लड़ाई करते थे। लेकिन विदेशी सपोर्ट मिलने के बाद इनके पास आधुनिक हथियार आ गये, यहाँ तक एंटी-एयर क्राफ्ट मिसाइल तक रहने लगी। जिससे सोवियत यूनियन की मुश्किलें बढ़ने लगीं।
‘Geneva Accords’ Agreement
1988 में अफगानिस्तान के प्रेसीडेंट ‘मोहम्मद नाजीबुल्लाह’ ने पाकिस्तान के साथ एक एग्रीमेंट ‘Geneva Accords’ (A peace agreement) साइन की। इसमें दोनों देशों के बीच मैत्री संबंध बनाने, अफगानिस्तानी रिफ्यूजी और कई अन्य समझौते हुए थे, इसके साक्षी सोवियत यूनियन और यूएसए थे। इसके अलावा एक और एग्रीमेंट हुआ था जिसमें यूएसए ने कहा था, कि यदि सोवियत अपनी सेना हटा ले, तो अमेरिका भी हथियारों की सप्लाई बंद कर देगा।
1989, फरवरी में सोवियत यूनियन अफगान छोड़ कर चला गया। 1987 में अफगानिस्तान में एक नया संविधान आया। जिसमें कहा गया कि अब दूसरी पार्टियाँ भी चुनाव लड़ सकती हैं। इसमें नजीबुल्ला की पार्टी PDPA जीत गई।

अफगानिस्तान एक इस्लामिक रिपब्लिक बन गया
1990 में अफगानिस्तान से कम्युनिज़्म पूरा हट गया। और अफगानिस्तान एक इस्लामिक रिपब्लिक देश घोषित हो गया। नजीबुल्ला ने परिस्थितियों को संभालने और सभी विचारधाराओं को बचाने की तमाम कोशिशें कीं। फिर भी वहाँ सिविल वार चलती रही। 1992 में मुजाहिद्दीन सिविल वार जीत गया और सत्ता ‘बुरहानुद्दीन रब्बानी’ को मिल गई। सोवियत के चले जाने के बावजूद अमेरिका मुजाहिद्दीन को हथियार भेजता रहा।

तालिबान अस्तित्व में कैसे आया?
1996 में तालिबान की एंट्री हुई। तालिबान एक ‘पशतूनी’ शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘स्टुडेंट’।
रब्बानी को सत्ता से हटा तालिबान का लीडर ‘मुल्ला ओमर’ कर खुद गद्दी पर बैठ गया। मुल्ला ओमर’ ने 50 लीडर्स के साथ इस ग्रुप को बनाया था। तालिबान को सउदी अरबिया और पकिस्तान ने सपोर्ट किया।

Northern Alliance
सितम्बर 1996 तक तालिबान ने काबुल पर कब़्जा कर लिया था। पहले आम जनता तालिबान के सपोर्ट में थी, क्योंकि उसने कुछ जगहों पर शांति स्थापित की थी। लेकिन धीरे–धीरे रूढ़िवादी सोच और उभर कर आने लगी। उसने सिनेमा, फोटोग्राफी, टीवी, आस्तीनों पर कढ़ाई आदि अजीब-अजीब बैन लगाने शुरू कर दिए।

पश्तूनी विचारों को मानने वाला तालिबान
तालिबानी पश्तूनी विचारों को मानता था, इसलिए उसने इस विचारधारा के इतर विचार रखने वालों (हजारा मुस्लिम, इसाईयों, हिंदुओं) को परेशान करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे तालिबान का आतंक बढ़ने लगा, उन्होंने वहाँ बुद्धा की मूर्ति तोड़ दी, नजीब को मार दिया। इससे दुनिया भर की सरकारों ने उसकी आलोचना करनी शुरू कर दी।
1990 के अंत तक मुजाहिद्दीन और तालिबान में लड़ाई हुई, इसे Northern Alliance के नाम से जाना जाता है मुजाहिद्दीन का लीडर ‘अहमद शाह मसूद’ था। 2001 में मुजाहिद्दीन लड़ाई हार गया और इसके लीडर को भी मार दिया गया।

अल-कायदा और तालिबान का कनेक्शन, 9/11 अटैक
इसके दो दिन बाद 11 सितम्बर को एक आतंकवादी संगठन अल-कायदा के लीडर, एक सऊदी आतंकी, ओसामा-बिन-लादेन ने, यूएसए में 9/11 का अटैक करवा दिया। अल-कायदा ने अटैक का कारण बताया कि अमेरिका दुनिया भर के मुसलमानों पर अत्याचार कर रहा था, इसलिए उसने बदला लिया है। तालिबान ने ओसामा को अफगानिस्तान में छिपने के लिए शरण दी थी। इस पर अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सेना भेज कर एयर स्ट्राइक करवा दी।

अमेरिका का मुजाहिद्दीन को समर्थन
2001 तक अमेरिका ने मुजाहिद्दीन का समर्थन कर तालिबान को पीछे धकेल दिया। भारत के साथ मैत्री संबंध स्थापित किये। अमेरिका ने पाकिस्तान में भी तालिबान के छिपे हुए इलाकों पर भी एयर स्ट्राइक करवाई।
दोहा समझौता
2011 में ओसामा को मार दिया गया। अमेरिकी सेना तालिबान को दबा कर रखने के लिए उसके बाद भी अफगानिस्तान में बनी रही। हालांकि तालिबान बीच-बीच में उभर कर आता रहा। उसने अफगानिस्तान के अलग-अलग इलाकों और पड़ोसी देशों मे बम-ब्लास्ट करवाए। जिसमें कई सिविलियन मारे गये। 2020 में डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के प्रेसीडेंट बने।
उन्होंने कतर के दोहा में तालिबान के साथ एक समझौता किया, उसमें उन्होंने कहा, “अगर तालिबान अल-कायदा जैसे संगठनों का साथ छोड़ दे, तो 14 माह के भीतर अमेरिका वापस चला जाएगा। क्योंकि वहाँ बहुत खर्च हो रहा है।“ साथ ही उन्होंने कहा, “हम अपने सैनिकों को मरने के लिए अब और वहाँ नहीं भेज सकते।“

तालिबान का अफगानिस्तान पर पूरा कब़्जा
अब 2021 में तालिबान बहुत अधिक मजबूत स्थिति में हैं। तालिबान के पास 85,000 से ज़्यादा लड़ाके हैं। और अभी अमेरिका के नये प्रेसीडेंट ‘जो बाइडेन’ ने ‘दोहा समझौते’ के तहत, अपनी सेना हटा ली। जिससे तालिबान को आज़ादी मिल गई और उसने अफगानिस्तान पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर लिया। वहाँ सरकार गिर चुकी है, शरिया कानून लग गया है।
भारत के लिए बढ़ सकता है खतरा
विशेषज्ञों का कहना है कि ये स्थिति भारत के लिए खतरा साबित हो सकती है। भारत में आतंकी हमले बढ़ सकते हैं, अफगानिस्तान के साथ मैत्री संबंध खराब हो सकते हैं। इसके अलावा भारत, अफगानिस्तान में जिन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहा है वो भी रूक सकता है।
