बिहार (Bihar) के मुजफ्फरपुर जिला के कुढ़नी प्रखंड के बड़ा सुमेरा मुर्गियाचक गांव में जब आप प्रवेश करेंगे तो हर घर से बांसुरी कि धुन सुनाई देगी। इस गांव के कई घरों में चार पीढ़ियों से बांसुरी(Flute) बनाने का काम किया जा रहा है लेकिन बदलते वक्त में बांसुरी की मांग में कमी आने लगी है। इन कारीगरों का कहना है कि अब सिर्फ बांसुरी बनाकर उन्हें बेचने से परिवार का गुजारा नहीं हो पाता। कभी इनकी बनाई बांसुरी की धुन नेपाल, भूटान और बांग्लादेश तक सुनाई देती थी लेकिन अब मांग लगातार घट रही है। इसलिए अब परिवार के लोगों को रोजगार के अन्य तरीकों की तलाश करनी पड़ रही है।
इस गांव के 30 मुस्लिम परिवार बांसुरी बनाते हैं। बांसुरी बनाने वाले शख्स नूर मोहम्मद बताते हैं कि वह 10 साल की उम्र से बांसुरी बना रहे हैं। मान्यता है कि द्वापर युग में कृष्ण के हाथों में रहने वाली बांसुरी नरकट लकड़ी की होती थी। कारीगर आज भी नरकट से बांसुरी का पारंपरिक तरीके से निर्माण करते हैं। चंदवारा, बड़ा सुमेरा, लकड़ीढाई, मोतीपुर में नरकट की खेती की जाती है। यही से इस लकड़ी को मंगाया जाता है। कारीगर मोहम्मद रिजवान ने बताया कि एक बांसुरी बनाने में चार से पांच रूपये का खर्च आता है। उनका पूरा परिवार दिनभर में 100 से 110 बांसुरी का निर्माण कर लेता है। इन कारीगरों की पीड़ा है कि उनकी कला को बचाए रखने के लिए सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही है। बांसुरी की मांग कम होने से अब खर्चा निकालना भी मुश्किल हो रहा है। यदि यही हाल रहा तो यह काम छोड़ना पड़ेगा।
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