Nawada Loksabha in Bihar: बिहार के कश्मीर में इस समय चुनावी बहार है. कभी सप्तऋषियों की तपोभूमि रहे इस नवादा में फिलहाल प्रत्याशी जीत का जाप करने में लगे हैं. इसके लिए वो जनता की आराधना में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते. समय के साथ न सिर्फ यहां की सीमाओं में बदलाव हुआ बल्कि जनता की वोट की चोट से कई राजनीतिक दल भी सियासी मैदान से बाहर हो गए. डेढ़ दशक तक कांग्रेस के वर्चस्व वाली इस सीट पर फिलहाल एनडीए का झंडा बुलंद है. अब खुद पीएम मोदी सात अप्रैल को बीजेपी प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार करने यहां आ रहे हैं. ऐसे में जान लेते हैं नावादा की राजनीतिक स्थिति और सियासी समीकरण.
बिहार की राजनीति का दक्षिणतम संसदीय क्षेत्र नवादा का इतिहास काफी समृद्ध रहा है. इस धरती से रामायण और महाभारत के कई प्रसंग जुड़े हैं तो वहीं इसी धरती पर कौआकोल के रानीगदर मानव सभ्यता का उदय हुआ. इसे सप्तऋषियों की तपोभूमि के कारण भी जाना जाता है. इसी धरती से महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध ने अहिंसा का संदेश दुनिया को दिया. यह धरती मौर्य साम्राज्य का हिस्सा रही है. वर्तमान में इसे बिहार का कश्मीर कहा जाता है. यहां ककोलत जलप्रपात है.
पहले आम चुनाव में गया पूर्वी संसदीय सीट का हिस्सा रहे नवादा की सीमाओं का कई बार परिवर्तन हुआ. 1957 के बाद नए परिसीमन में यह संसदीय क्षेत्र संख्या 34 के रूप में अस्तित्व में आई. इसके बाद 1962 में यह संसदीय क्षेत्र संख्या- 42(सुरक्षित) के रूप में जानी गई. 40 साल तक इस तरह रहने के बाद फिर इसका परिसीमन बदला और 2004 में संसदीय क्षेत्र संख्या-39 के रूप में इसका पुर्नगठन हुआ. फिलहाल रजौली, हिसुआ, नवादा, गोविन्दपुर, वारिसलीगंज और शेखपुरा जिले का बरबीघा विधानसभा क्षेत्र इस संसदीय सीट में है।
अब बात यहां के राजनीतिक इतिहास की करते हैं. तकरीबन एक दशक तक कांग्रेस का गढ़ रही यह सीट अपने कलेवर बदलने के लिए जानी जाती है. पहले लोकसभा चुनाव में यहां से कांग्रेस के ब्रजेश्वर प्रसाद व रामधनी दास संयुक्त रूप से सांसद रहे. इसी सीट पर 1967 में स्तवंत्र उम्मीदवार सूर्य प्रकाश पुरी ने कांग्रेस का वर्चस्व खत्म करते हुए अपना झंडा बुंलद किया था. इसके बाद 1971 में एक बार फिर कांग्रेस ने वापसी की. लेकिन 1977 में यह सीट कांग्रेस से फिर छिन गई. इसे इमरजेंसी के बाद इंदिरा विरोधी लहर के रूप में नावादा का जवाब माना गया. इसके बाद फिर से कांग्रेस ने वापसी की 1980 से 1984 तक नवादा की जनता से फिर से उनके पक्ष में दो बार जनादेश दिया. इसके बाद से आज तक कांग्रेस का इस सीट से खाता नहीं खुल पाया.
1989 और 1991 में यहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) ने परचम लहराया तो वहीं 1996 में पहली बार इस सीट से कमल खिला. इसके बाद 1998 में यह सीट आरजेडी के खाते में आई. इसके बाद अगर 2004 के चुनावों को छोड़ दिया जाए तो इस सीट पर बीजेपी और उसके सहयोगी दल का कब्जा रहा.
बात अगर नवादा के जातीय समीकरण की करें तों जातीय हिंसा और नक्सलवाद का दंश झेल चुकी नावादा सीट पर जातीय राजनीति का दबदबा रहा है. यह सीट भूमिहार और यादव बहुल है. वहीं इस सीट में कुशवाहा, वैश्य और मुस्लिम वोटर भी हार जीत का गणित तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं. यहां पर महिला वोटरों की भागीदारी पुरुष वोटरों से ज्यादा रही है. इसलिए उम्मीद है कि इस सीट पर महिला वोटर अहम किरदार निभाएंगी. 2019 में भी इस सीट से जहां 48.76 प्रतिशत पुरुषों ने वोट किया तो वहीं महिलाओं का प्रतिशत 49.76 रहा था.
अब बात यहां चुनावी मैदान में उतरे प्रत्याशियों की. इस सीट से बीजेपी ने जहां विवेक ठाकुर (भूमिहार समाज) को टिकट दिया है तो वहीं आरजेडी की ओर से श्रवण कुमार कुशवाहा को टिकट दिया गया है. आरजेडी के सिंबल से पूर्व में चुनाव लड़ चुकीं विभा देवी के पति राजबल्लभ यादव के भाई विनोद यादव यहां से निर्दलीय ताल ठोंक रहे हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि विनोद यादव, आरजेडी के श्रवण कुमार कुशवाहा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं, क्योंकि आरजेडी को यादव वोट बैंक पर भरोसा है और वहीं विनोद यादव के चुनावी मैदान में आने से चुनावी गणित बदल सकता है. दूसरी ओर भोजपुरी गायक गुंजन कुमार ने भी यहां से नामांकन किया है. वह भूमिहार समाज से आते हैं लेकिन गुंजन कुमार विवेक ठाकुर के वोट बैंक पर कोई खास असर डालेंगे ऐसा अनुमान कम ही है. ऐसे में अन्य जातीय वोटर हार जीत में अहम भूमिका निभा सकते हैं.
अन्य उम्मीदवार
अब तक इस क्षेत्र से निर्वाचित सांसद
विधानसभा के अनुसार मतदाताओं की संख्या
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