Panchayati System: वैदिक काल से ही भारत में गांव को क्षेत्रीय स्वशासन की आधारभूत इकाई माना जाता है। यहां तक की हमारे पौराणिक ग्रंथ रामायण के अध्ययन से संकेत मिलता है कि प्रशासन दो भाग- पुर और जनपद अर्थात् नगर और गांव में विभाजित था। ऐतिहासिक स्त्रोत के अनुसार, ग्राम के ऊपर 10, 20, 100 और 1,000 गांव समूहों की इकाइयां थीं। उस वक्त ग्रामिक गांव का मुख्य अधिकारी होता था, जबकि ‘दशप’ दस गांवों का प्रमुख होता था। 20 गांव के प्रमुख विंश्य अधिपति, 100 ग्राम के प्रमुख जो शत ग्राम अध्यक्ष और 1000 ग्रामों के प्रमुख को शत ग्राम पति कहते थे।
ग्राम के अधिकारी स्थानीय समस्या के समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर एक होकर मजबूती से सामना करते थे। अपने ग्रामों की रक्षा के लिये उत्तरदायी थे। प्राचीन काल में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है। नगर को ‘पुर’ कहा जाता था और इसका प्रमुख ‘नागरिक’ होता था। इस स्थानीय निकाय की किसी भी व्यवस्था में राजसी हस्तक्षेप नही थे । मध्य काल से सल्तनत काल के दौरान दिल्ली के सुल्तानों ने अपने राज्य को प्रांतों में विभाजित किया था, जिन्हें विलायत’ कहा जाता था उस समय ग्राम के शासन के लिये तीन महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते थे। प्रशासन के लिये मुकद्दम, राजस्व संग्रह के लिये पटवारी, पंचों की सहायता से विवादों के समाधान के लिये चौधरी होते थे।
प्रेमचन्द्र की कहानियों में ग्राम पंचायत व्यवस्था की झलक देखने को मिलती है। लेकिन धीरे धीरे ब्रिटिश काल में ग्राम पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त होती गई और वे कमज़ोर होते गए। इसके बाद नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश के पास एक खुली पंचायत में, महात्मा गांधी ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था की नींव रखी। जिसके तहत सरकार को एक विकेन्द्रीकृत रूप में कार्य करने की सलाह थी। इसमे प्रत्येक गांव अपने मामलों के लिए खुद जिम्मेदार होता। उनका मानना था कि पंचायत राज स्थापित होने से लोकमत ऐसे भी अनेक काम कर दिखाएगा जो हिंसा कभी नहीं कर सकती।
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