New Delhi : देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं कहलाता। इस सच्चाई को जानने के बावजूद भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली पीड़ितों को वक्त पर न्याय दिलाने में बुरी तरह विफल साबित हुई। देश जिला अदालतों में वर्षों से लंबित 4.4 करोड़ मुकदमें इसके सबूत हैं, जिनमें 3.33 करोड़ मुकदमें आपराधिक हैं।
भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत बने नए कानूनों में पीड़ित को समय पर न्याय दिलाने का पुख्ता इंतजाम किया गया है, और इसके लिए पुलिस, सरकार और अदालत तीनों की जिम्मेदारी के साथ ही उसे पूरा करने की समय सीमा भी तय कर दी गई है।
इन कानूनों से जुड़े विधेयक पर संसद में चर्चा के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने साफ कर दिया था कि औपनिवेशिक कानूनों का मूल उद्देश्य दंड देना था, इसीलिए पीड़ित को समय पर न्याय दिलाना उसकी प्राथमिकता में ही नहीं था, जबकि भारतीय आत्मा वाले नए कानूनों का उद्देश्य पीड़ित को समय पर न्याय दिलाना है। शाह के अनुसार नए कानूनों से अदालतों में तारीख पर तारीख मिलने का जमाना खत्म करने में मदद मिलेगी। दरअसल किसी भी आपराधिक मुकदमे की शुरुआत एफआइआर से होती है।
नये कानूनों में एफआइआर दर्ज करने और चार्जशीट दाखिल करने की समय सीमा तय कर दी गई है, जो पुराने कानूनों में नहीं थी। इसके तहत तीन से सात साल की सजा के मामले में 14 दिन में प्रारंभिक जांच पूरी करके एफआइआर दर्ज करनी होगी और अगर छोटी सजा का अपराध है, तो तीन दिन के अंदर करनी होगी। 24 घंटे में तलाशी रिपोर्ट के बाद उसे न्यायालय के सामने रख दिया जाएगा।
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