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भारत का वह मुसलमान जिसकी शहनाई की धुन के साथ खुलते थे काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट

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वैसे तो बनारस की सुबह पूरी दुनिया में आज भी मशहूर है. लेकिन यह सुबह और भी अधिक खूबसूरत हो जाती थी, जब बनारस में सुबह की पहली किरण के साथ मंदिरों में एक ओर घंटियों की टन-टन होती, तो दूसरी ओर शहनाई की तेज़ धुन बजती. इस शहनाई को बजाने वाले कोई और नहीं बल्कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान थे. जिस बनारसी गंगा जमुनी तहजीब का नाम आज भी दुनिया में बड़े अदब के साथ लिया जाता है, उसकी जीती जागती मिसाल थे बिस्मिल्लाह खान.

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वही बिस्मिल्लाह खान, जिनकी शहनाई सुनने विदेशों से लोग आते थे. एक ऐसे मुसलमान जिसने हिंदू मंदिर में रियाज़ किया और शहनाई को ही इबादत का सामान बना लिया. आज उनकी पुण्यतिथि है, आइए जानते हैं एक अल्हड़ बनारसी से भारत रत्न तक के उनके सफर तक के कुछ किस्से

बिहार के डुमरांव से बनारस के घाट तक का सफर

21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमरांव जिले के एक मुस्लिम परिवार में एक बच्चे ने जन्म लिया. लेकिन किसी को क्या पता था कि यह बच्चा आगे चलकर शहनाई का पर्याय बिस्मिल्लाह खान बन जाएगा. बिस्मिल्लाह खान का ताल्लुक एक संगीत घराने से था. उनके माता और पिता दोनों ही संगीतकार थे. लेकिन 6 साल की उम्र में ही बिस्मिल्लाह खान अपने मामा अली बक्श को अपना गुरु बना लिया और उनके शागिर्द बन बनारस आ गए. यहां वे मामा अली बक्श के साथ गंगा घाट किनारे और मंदिरों में शहनाई का रियाज करने लगे.

उनकी शहनाई से खुलती थी बाबा काशी विश्वनाथ की नींद!

बिस्मिल्लाह खान के मामा काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाया करते थे.बिस्मिल्लाह खान का भी मन होता कि वे बाबा के दरबार में हाजिरी लगाएं. आखिरकार उनके मामा ने उन्हें काशी विश्वनाथ मंदिर में अपने साथ शहनाई बजाने का मौका दिया. जिसके बाद बाबा विश्वनाथ से उनका नाता सदा के लिए जुड़ गया. बिस्मिल्लाह खान मंदिर के पास के ही मोहल्ले में अपने मकान की सबसे ऊपरी मंजिल पर रहा करते थे. उनके कमरे की एक खिड़की काशी विश्वनाथ मंदिर की दिशा में खुला करती थी. जब तक उस्ताद जिंदा रहे बाबा भोलेनाथ को भोर में शहनाई बजाकर जगाते रहे.

हिंदू मुस्लिम एकता के जीती जागती मिसाल थे बिस्मिल्लाह खान

बिस्मिल्लाह जानते थे कि वह मुस्लिम हैं बावजूद इसके वे माता सरस्वती को पूजते थे और उनसे अपनी कला को और बेहतर बनाने की दुआ मांगते थे. यही कारण रहा कि मां सरस्वती की कृपा बिस्मिल्लाह पर बरसी और वक़्त के साथ उनका हुनर बढ़ता गया.

ऑल इंडिया म्यूजिक कांफ्रेंस ने बदल दी किस्मत

बात 1937 की है जब कलकत्ता में ऑल इंडिया म्यूजिक कांफ्रेंस का आयोजन हुआ. संगीत के दूसरे महारथियों के सामने बिस्मिल्लाह खान को शहनाई बजाने का मौका मिला. कहते हैं कि उस शाम बिस्मिल्लाह खान ने ऐसी शहनाई बजाई कि हर कोई उनका दीवाना हो गया. उस दिन के बाद से शहनाई के प्रति सब का नज़रिया बदल गया. कलकत्ता से बिस्मिल्लाह खान ने इतना नाम कमाया कि वह जैसे ही वापस लौटे ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ ने उन्हें नौकरी पर रख लिया.

उस्ताद की शहनाई की धुनों के बीच आजाद भारत ने रखा पहला कदम

वह साल 1947 था. अंग्रेजी हुक़ूमत हार चुकी थी और भारत को आज़ादी मिल गयी थी. भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा फहराकर आज़ादी का जश्न मनाया. उन्होंने इस जश्न में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को भी बुलावा भेजा. उस दिन पूरे देश ने उस्ताद की शहनाई से भारत की आज़ादी का राग सुना. साल 1950 में भारत के पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने लाल किले से ‘राग कैफ़ी’ छेड़ा. वो राग इतना बुलंद था कि आज तक उसे गणतंत्र दिवस के मौके पर इस्तेमाल किया जाता है.

गंगा से लगाव के कारण ठुकराया अमेरिका का ऑफर

बिस्मिल्लाह खान को मां गंगा से बेहद लगाव था. यही कारण है कि फिल्मी दुनिया के लोगों के लाख कहने पर भी वे कभी मुंबई जाकर नहीं बसे. एक बार की बात है, खां साहब अमेरिका में किसी खास कार्यक्रम में प्रस्तुति पेश करने गये हुये थे. कार्यक्रम खत्म होते होते आयोजक महोदय के कायल हो गए. उन्होंने उस्ताद बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में ही निवास करने का ऑफर तक दे दिया. लेकिन उस्ताद खां साहब ने भी जवाब में कहा-‘साहब मेरा बनारस, यहां बसा दीजिए,मां गंगा का घाट और शिवाला यहां ले आइए. फिर अमेरिकी महाशय के पास कोई उत्तर देते नहीं बना.

गंगा में स्नान, मस्जिद में नमाज़, और मंदिर में रियाज

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान हमेशा ही गंगा-जमुनी तहजीब का पालन करते थे. उनका धर्म भले ही अलग था मगर गंगा नदी और मंदिरों के लिए उनके दिल में बहुत इज्जत थी. खुद पर बनी एक डॉक्युमेंट्री में वह बनारस से अपने रिश्ते के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि गंगा जी सामने है, यहाँ नहाइए, मस्जिद है, नमाज़ पढ़िए और बालाजी मंदिर में जा के रियाज़ करिए. बिस्मिल्लाह खान का ऐसी शख्सियत और संगीत के प्रति प्रेम ही था, जिसने उन्हें भारत रत्न, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और पद्म श्री जैसे सर्वोच्च पुरस्कार दिलवाए.

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