Advertisement

भारत की पुलिस का चेहरा कब बदलेगा

भारत की पुलिस का चेहरा

भारत की पुलिस

Share
Advertisement

भारत की पुलिस और इसका चेहरा कब बदलेगा? सवाल आपके जेहन में हर उस वक्त में उठता होगा जब आप भारत की पुलिस के बारे में सोचते होंगे या इससे पाला पड़ता होगा। सवाल जायज भी है आजादी की अमृत महोत्सव हम धूमधाम से मना रहे हैं मगर पुलिस अत्याचार की खबरें अभी भी आम ही हैं। चाहे वह ग्रेटर नोएडा में बदमाश भूरा का फर्जी एनकाउंटर हो या गोरखपुर में होटल में ठहरे कारोबारी को घसीटकर मारने की घटना।

Advertisement

यूपी हो या दिल्ली या फिर कोई और राज्य पुलिस की बर्बरता की घटनाएं सामने आती रहती हैं। कोरोना की शुरूआत में भारत की पुलिस ने अपना इंसानियत वाला चेहरा दिखाने की पूरजोर कोशिश की थी। दिल्ली पुलिस ने दिल की पुलिस का नारा दिया था तो दूसरे राज्यों की पुलिस भी अनाज, भोजन वितरण कर अपनी सहृदयता दिखाने की कोशिश की थी।  लेकिन फिर समय के साथ दिल वाली पुलिस का चेहरा बदल रहा है।

कुछ दिन पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने पुलिस हिरासत में मौत (कस्टोडियल डेथ) के मामलों का जिक्र किया था। उन्होंने कहा कि संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस हिरासत में शोषण, उत्पीड़न और मौत होती है। इसके चलते पुलिस स्टेशनों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है। हमारे देश में कस्टोडियल डेथ हमेशा ही बहस का विषय रहा है और इस बाबत आंकड़े हमेशा ही डराने वाले रहे हैं।

क्या कहता है एमसीआरबी

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 2017 में पुलिस हिरासत में कम-से-कम 100 लोगों की मौत हुई जिनमें से अधिकांश निर्दोष थे। इनमें से 58 तो ऐसे थे जिन्हें गिरफ्तार करने के बाद कोर्ट के सामने पेश भी नहीं किया जा सका था। जबकि 42 ऐसे थे जो पुलिस या न्यायिक रिमांड पर थे।

एनसीआरबी के ही मुताबिक 2001 से 2018 के बीच पुलिस हिरासत में 1,727 लोग मरे। वहीं नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टार्चर नामक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि केवल 2019 में हिरासत के दौरान 1,731 मौतें हुईं। हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सभी लोग पुलिस की पिटाई से ही मरते हैं। इनमें कुछ बीमारी तो कुछ दूसरे कारणों से भी अपनी जान गंवाते हैं।

भारत की पुलिस के लिए लोगों के दिलों में खौफ क्यों?

ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि  तमाम सरकारी कवायदों भारत की  पुलिस का चेहरा अंग्रेजों की पुलिस से अलग क्यों नहीं हो रही, क्यों लोगों के दिल में पुलिस से मित्रता की जगह खौफ निवास करती है। प्रायः देखा जाता है कि यातनाओं के मामले में पुलिसकर्मी बच कर निकल जाते हैं। ज्यादा कुछ हुआ तो कुछ दिनों के लिए निलंबित हो जाते हैं और फिर काम पर लौट आते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2017 में जिन सौ कैदियों की मौत हुई, उन मौतों के लिए एक भी पुलिस अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया गया है।

एनसीआरबी द्वारा 2001 से 2018 के बीच जिन 1,727 लोगों की मौत का आंकड़ा दिया गया है, उन मामलों में सिर्फ 26 अधिकारी ही दोषी ठहराए जा सके हैं और इनमें से ज्यादातर जमानत पर बाहर हैं। कस्टोडियल डेथ से अलग देखें तो साल 2000 से 2018 के दौरान पुलिस के खिलाफ 2,041 मानवाधिकार उल्लंघन के मामले दर्ज हुए, लेकिन इनमें सिर्फ 344 पुलिसकर्मी ही दोषी साबित हो सके। पुलिसकर्मियों के आसानी से बचकर निकल जाने से ही हिरासत में हो रही मौतों पर लगाम नहीं लग पा रही है। वे कैदियों से सच उगलवाने के लिए यातना और हिंसा को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

यह भी पढ़ें: पुलिस सिस्टम का एक ऐसा ग्रुप जो 742 जिलों के बदमाशों पर कस रहा नकेल

दूसरी वजह है कि देश में पुलिस सुधार का अभाव है। बार-बार सरकारी समितियां और अदालतें पुलिस सुधार की बात करती रही हैं, लेकिन पुलिस सुधार के निर्देशों को हमेशा ही नजरअंदाज किया जाता रहा है। पुलिस सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट गिरफ्तारी के दौरान पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के भी निर्देश दे चुका है। इस मामले में 1996 के डीके बसु केस बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला एक नजीर है। गिरफ्तारी को लेकर कोर्ट ने 11 सूत्रीय दिशानिर्देश जारी किए थे।

कुछ महत्वपूर्ण निर्देशों की बात करें तो इनमें एक यह है कि गिरफ्तार या पूछताछ करने वाले पुलिसकर्मी अपने नाम और पहचान का नेम प्लेट लगा कर रखेंगे। दूसरा, गिरफ्तारी का विवरण रजिस्टर पर दर्ज किया जाएगा जिसमें गिरफ्तारी की तारीख, समय और स्थान का जिक्र होगा। परिवार के किसी सदस्य द्वारा सत्यापित सभी विवरण शामिल होंगे। तीसरा, गिरफ्तारी के समय एक गवाह और गिरफ्तार व्यक्ति के दस्तखत लिए जाएंगे। उसे एक मित्र या रिश्तेदार से बात करने का मौका दिया जाएगा और गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकार की सूचना दी जाएगी, लेकिन इन निर्देशों के पालन में कोताही बरती जा रही है।

हालांकि इन सबसे बड़ी बात राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। सता चाहे जिसकी भी हो पुलिस पर अधिकार रखे बिना पावर की फिलिंग ना आने की बात राजनेताओं में घर की हुई है इसकी वजह से पुलिस विभाग का राजनीतिकरण हो गया है। चूंकि पुलिस राज्य का मामला है, ऐसे में राज्य सरकारें अपनी छवि चमकाने के लिए अक्सर ही पुलिस के गुनाहों पर पर्दा डालने की कोशिश करती रहती हैं। साथ ही राज्य सरकारों पर कई बार पुलिस प्रशासन के दुरुपयोग के आरोप भी लगते रहे हैं। दशकों से पुलिस सुधार के विभिन्न पहलुओं पर सरकारों की खामोशी समस्या को और जटिल बनाती रही है।

भारत की पुलिस की छवि कितनी खराब है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में रह रहे भारत के गुनहगारों के प्रत्यर्पण में अपेक्षा के विपरीत समय लगता है। क्रिकेट सट्टेबाजी के मामले में सट्टेबाज संजीव चावला ब्रिटेन की अदालत में यह तर्क देकर दो दशक तक प्रत्यर्पण से बचता रहा था कि भारतीय जेलों और पुलिस हिरासत में यातना जगजाहिर है जिससे उसे अपनी जान का खतरा है। जाहिर है पुलिस की यह शैली न केवल नागरिकों की सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक है, बल्कि विश्व समुदाय में भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचा रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *