अध्याय 1: देश को आजादी का सपना दिखा कर इस सपने को पूरा करने वाले महात्मा गांधी की आज 152 वीं जयंती है। रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम, ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान का संदेश देने वाले बापू’ ने न सिर्फ भारत को अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई बल्कि उन्होंने साउथ अफ्रीका में गोरे और काले के बीच नस्ल भेद को भी मिटाया।
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। उनके पिता श्री करमचंद गांधी पोरबंदर में एक ‘दीवान’ थे और माता पुतलीबाई एक धार्मिक महिला थी। गांधीजी के जीवन में उनकी माता का बहुत अधिक प्रभाव रहा। कई जगहों पर गांधी ने अपनी मां का जिक्र करते हुए कहा है कि उनकी माता अनपढ़ हैं मगर बुद्धिमान हैं। उनका विवाह 13 वर्ष की उम्र में ही हो गया था और उनकी पत्नी कस्तूरबा उनसे 6 महीने बड़ी थी।
गांधी ने अपने जीवन में कई आंदोलन किए जिसमें चंपारण, खेड़ा, असहयोग आन्दोलन, स्वराज और नमक सत्याग्रह, दलित आंदोलन, भारत छोड़ो जैसे आन्दोलन शामिल थे। उनके आंदोलनों ने अंग्रेजो पर दबाव बनाया, जिसकी वजह से देश को आजादी मिली। 30 जनवरी 1948 को बापु की नाथुराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ”द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ” (The Story of My Experiments with Truth) में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। अपनी आत्मकथा में गांधी ने जीवन के कई अनुभवों को बताया है।
आत्मकथा लिखने के विषय में गांधी कहते है, चार या पाँच वर्ष पहले निकट के साथियों के आग्रह से मैंने आत्मकथा लिखना स्वीकार किया था और उसे आरम्भ भी कर दिया था। किन्तु फुलस्केप का एक पृष्ट भी पूरा नहीं कर पाया था कि इतने में बम्बई की ज्वाला प्रकट हुई और मेरा शुरू किया हुआ काम अधूरा रह गया। उसके बाद तो मैं एक के बाद एक ऐसे व्यवसायों में फँसा कि अन्त में मुझे यरवाडा पर अपना स्थान मिला। भाई जयरामदास भी वहाँ थे।
उन्होंने मेरे सामने अपनी यह माँग रखी कि दूसरे सब काम छोड़कर मुझे पहले आत्मकथा ही लिख डालनी चाहिए। मैंने उन्हें जवाब दिया कि मेरा अभ्यास-क्रम बन चुका है और उसके समाप्त होने तक मैं आत्मकथा का आरम्भ नहीं कर सकूँगा। अगर मुझे अपना पूरा समय यरवाडा में बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होता, तो मैं ज़रूर आत्मकथा वहीं लिख सकता था। परन्तु अभी अभ्यास-क्रम की समाप्ति में भी एक वर्ष बाकी था कि मैं रिहा कर दिया गया। उससे पहले मैं किसी तरह आत्मकथा का आरम्भ भी नहीं कर सकता था। इसलिए वह लिखी नहीं जा सकी। अब स्वामी आनन्द ने फिर वही माँग की हैं।
मैं दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास लिख चुका हूँ, इसलिए आत्मकथा लिखने को ललचाया हूँ। स्वामी की माँग तो यह थी कि मैं पूरी कथा लिख डालूँ और फिर वह पुस्तक के रूप में छपे । मेरे पास इकट्ठा इतना समय नहीं हैं। अगर लिखूं तो ‘नवजीवन’ के लिए ही मैं लिख सकता हूँ। मुझे ‘नवजीवन’ के लिए कुछ तो लिखना ही होता है । तो आत्मकथा ही क्यों न लिखू?
स्वामी ने मेरा यह निर्णय स्वीकार किया और और अब आत्मकथा लिखने का अवसर मुझे मिला। किन्तु यह निर्णय करने पर एक निर्मल साथी ने, सोमवार के दिन जब मैं मौन में था, धीमे से मुझे यों कहा, “आप आत्मकथा क्यों लिखना चाहते हैं ? यह तो पश्चिम की प्रथा है। पूर्व में तो किसी ने लिखी नहीं। और लिखेंगे क्या ? आज जिस वस्तु को आप सिद्धान्त के रुप में मानते हैं, उसे कल मानना छोड़ दे तो ? अथवा सिद्धान्त का अनुसरण करके जो भी कार्य आज आप करते हैं, उन कार्यों में बाद में हेरफेर करें तो ? बहुत से लोग आपके लेखों को प्रमाणभूत समझकर उनके अनुसार अपना आचरण गढ़ते हैं।”
राजनीति के क्षेत्र में हुए मेरे प्रयोगों को तो अब हिन्दुस्तान जानता है; यही नहीं बल्कि थोड़ी-बहुत मात्रा में सभ्य कही जानेवाली दुनिया भी उन्हें जानती है। मेरे मन में इसकी कीमत कम से कम है, और इसलिए इन प्रयोगों के द्वारा मुझे ‘महात्मा’ का जो पद मिला है, उसकी कीमत भी कम ही है। कई बार तो इस विशेषण ने मुझे बहुत अधिक दुःख भी दिया है।
मुझे ऐसा एक भी क्षण याद नहीं है, जब इस विशेषण के कारण मैं अति उत्साहित रहा हूं। लेकिन अपने आध्यात्मिक प्रयोगों का, जिन्हें मैं ही जान सकता हूँ और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है, वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा।
अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं, तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं। इनसे तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी । ज्यों-ज्यों में विचार करता जाता हूँ, भूतकाल के अपने जीवन पर दृष्टि डालता हूँ, त्यो-त्यों अपनी अल्पता मैं स्पष्ट ही देख सकता हूँ। मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाये हुए हूँ, वह तो आत्म-दर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है।
मेरे प्रयोगों में तो आध्यत्मिकता का मतलब है नैतिक; धर्म का अर्थ है नीति; आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति धर्म है। इसलिए जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़े करते हैं और कर सकते हैं, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा । अगर ऐसी कथा मैं तटस्थ भाव से, निरभिमान रहकर लिख सकूँ, तो उसमें से दूसरे प्रयोग करनेवालों को कुछ सामग्री मिलेगी। इन प्रयोगों के बारेमें मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता । जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियम-पूर्वक, विचार-पूर्वक और बारीकी से करता है, फिर भी उनसे उत्पन्न परिणामों को अन्तिम नहीं कहता, अथवा वे परिणाम सच्चे ही हैं इस बारे में भी वह साशंक नहीं तो तटस्थ अवश्य रहता है, अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी वैसा ही दावा है।
मैंने खूब आत्म-निरीक्षण किया है, एक-एक भाव की जाँच की है, उसका पृथक्करण किया है। किन्तु उसमें में निकले हुए परिणाम सबके लिए अन्तिम ही हैं, वे सच हैं अथवा वे ही सच हैं, ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता । हाँ, यह दावा मैं अवश्य करता हूँ कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अन्तिम जैसे ही मालूम होते हैं । अगर न मालूम हो तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं तो पग- पग पर जिन-जिन वस्तुओं को देखता हूँ, उनके त्याज्य और ग्राह्य ऐसे दो भाग कर लेता हूँ, और जिन्हें ग्राह्य समझता हूँ उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूँ। और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे अर्थात् मेरी बुद्धि को और आत्मा को संतोष देता हैं, तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए।
यदि मुझे केवल सिद्धान्तों का अर्थात् तत्त्वों का ही वर्णन करना हो, तब तो यह आत्मकथा मुझे लिखनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मुझे तो उन पर रचे गये कार्यों का इतिहास देना है, और इसीलिए मैंने इन प्रयत्नों को ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा पहला नाम दिया है। इसमें सत्य से भिन्न माने जानेवाले अहिंसा, ब्रह्मचर्य इत्यादि नियमों के प्रयोग भी आ जाएँगे। लेकिन मेरे मन सत्य ही सर्वोपरि है और उसमें अगणित वस्तुओं का समावेश हो जाता है । यह सत्य स्थूल-वाचिक-सत्य नहीं है। यह तो वाणी की तरह विचार का भी है । यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य ही नहीं है, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है; अर्थात् परमेश्वर ही है।
स्रोत: The Story of My Experiments with Truth- MK Gandhi
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