देशभर में विजयादशमी का पर्व रावण दहन कर के मनाया जाता है लेकिन जसवंतनगर में ऐसा नहीं होता। इटावा जनपद के जसवंतनगर में लोग रावण दहन करने की बजाय रावण का स्वरुप बनाकर उसका वध करते हैं।
दरअसल, जसवंतनगर में रामलीला का आयोजन पिछले 164 सालों से हो रहा हैं। इस महोत्सव पर रावण का दहन करने के बजाय रावण के स्वरुप का वध होता है। यहां रावण के पुतले पर पत्थर बरसा कर, लाठियों से पीटकर उसके टुकड़े कर दिए जाते हैं और फिर वहां मौजूद लोग उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं। रावण की तेरहवीं भी की जाती है। इसमें नगर के लोगों को आमंत्रित किया जाता है।
यहां के लोग कई जगहों पर रावण की आरती और पूजा करने के साथ-साथ उसके जयकारे भी लगाते हैं और रावण के पुतले के टुकड़ों को वर्ष भर लोग अपने घर में सहेज कर रखते हैं। इसके पीछे लोगों की मान्यता है कि इससे बच्चों को बुरी नजर नहीं लगती और घर के सदस्यों को बाधाएं नहीं सताती। इसके साथ ही रोग एवं अकाल मौत नहीं होती। लोगों का मानना है कि व्यापार, जुए, सट्टे में हर कीमत में फायदा होता है।
इतना ही नहीं दशहरे के दिन जब रावण अपनी सेना के साथ नगर की सड़कों से भगवान राम से युद्ध करने के लिए निकलता है तब सड़कों पर उसकी विद्वता और पांडित्य की लोग तारीफ करते हैं। उसकी पूजा और आरती करते हैं। यह परंपरा 40 वर्ष पूर्व यहां के जैन बाजार में शुरू हुई थी। रामलीला के मंचन के दौरान रावण भगवान राम से युद्ध करने जाते वक्त नगर की आराध्य देवी केला गमा देवी के मंदिर जाता है तब बाजार के दुकानदार बड़ी पारातों में घी, कपूर, अगरबत्ती आदि जलाकर उसकी आरती उतारते हैं। रावण अपने माथे पर त्रिपुंड लगाता था, इसीलिए आरती करते वक्त लोग पीला टीका अपने माथे पर लगाते हैं ।
इसके बाद भगवान राम बाणों को मैदान में लगे रावण के पुतले पर जैसे ही चलाते हैं तो रावण वध लीला खत्म हो जाती है। फिर भारी भीड़ रावण के विशालकाय पुतले को नीचे गिराकर उसके टुकड़े सहित काला कपड़ा, रंग बिरंगे कागज, मालाएं, बांस आदि अपने घरों में रखने के लिए उठा ले जाते हैं। बिना फूंके ही रावण के पुतले का एक-एक टुकड़ा राम लीला मैदान में साफ हो जाता है।
नगर की सड़कों पर राम और रावण के बीच रोमांचक युद्ध कई घंटों चलता है। उसके बाद रामलीला में ये युद्ध ज़ारी रहता है। रावण वध के लिए भगवान राम निश्चित पंचक मुहूर्त तक युद्ध करते रहते हैं। विभीषण द्वारा राम के कान में जैसे ही रावण की नाभि में अमृत होने का राज बताया जाता है। भगवान राम अंतिम बाण रावण पर छोड़ते हैं और पात्र बना रावण मृत्यु को पाता है। भारी भीड़ रावण के विशालकाय पुतले को नीचे गिराकर उसके टुकड़े सहित काला कपड़ा, रंग बिरंगे कागज, मालाएं, बांस आदि अपने घरों में रखने के लिए उठा ले जाते हैं। रामलीला समिति के प्रबंधक राजीव बबलू गुप्ता और उप प्रबंधक ठा. अजेंद्र सिंह गौर कहते हैं कि रावण की आरती या पूजा की परंपरा दक्षिण भारत की है, लेकिन फिर भी उत्तर भारत के जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है, यह अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है। जानकार बताते हैं कि रामलीला की शुरुआत यहां 1855 में हुई थी लेकिन 1857 के गदर ने इसको रोका। फिर 1859 से यह रामलीला लगातार जारी है।
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